मानसरोवर भी ऐसा नहीं जिसके हृदय में दया हो, जो स्वार्थपरता के हाथों विक न गया हो । छल और धूर्तता इस पेशे का मूलतत्व है । इसके बिना किसी तरह निर्वाह नहीं। अगर कोई महाशय जातीय आन्दोलन में शरीक भी होते हैं, तो स्वार्थ- सिद्धि करने के लिए, अपना ढोल पीटने के लिए। हम लोगों का समग्र जीवन वासना भक्ति पर अर्पित हो जाता है। दुर्भाग्य से हमारे देश का शिक्षित समुदाय इसी दर्गाह का मुजावर होता जाता है, और यही कारण है कि हमारी जातीय सस्थाओं की शीघ्र वृद्धि नहीं होती। जिस काम में हमारा दिल न हो, हम केवल ख्याति और स्वार्थ-लाभ के लिए उसके कर्णधार बने हुए हों, वह कभी नहीं हो सकता। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का अन्याय है जिसने इस पेशे को इतना उच्च स्थान प्रदान कर दिया है। यह विदेशी सभ्यता का निक- टतम स्वरूप है कि देश का बुद्धिबल स्वय धनोपार्जन न करके दूसरों की पैदा की हुई दौलत पर चैन करना, शहद की मक्खी न बनकर, चींटी बनना अपने जीवन का लक्ष्य समझता है । मानकी चिढ़कर बोली-पहले तो तुम वकीलों की इतनी निन्दा न करते थे! ईश्वरचन्द्र ने उत्तर दिया-तब अनुभव न था। बाहरी टीमटाम ने वशीकरण कर दिया था। मानकी- क्या जाने तुम्हें पत्रों से क्यों इतना प्रेम है, मैं तो जिसे देखती हूँ, अपनी कठिनाइयों का रोना रोते हुए पाती हूँ। कोई अपने ग्राहकों से नये ग्राहक बनाने का अनुरोध करता है, कोई चन्दा न वसूल होने की शिकायत करता है । बता दो कि कोई उच्च शिक्षाप्राप्त मनुष्य कभी इस पेशे में श्राया है । जिसे कुछ नहीं सूझती, जिसके पास न कोई सनद है, न कोई डिग्री, वही पत्र निकाल बैठता है और मूखों मरने की अपेक्षा रूखी रोटियों पर ही सतोष करता है । लोग विलायत जाते हैं, वहाँ कोई पढ़ता है डाक्टरी, कोई इजिनियरी, कोई सिविल सर्विस , लेकिन अाज तक न सुना कि कोई एडीटरी का काम सीखने गया । क्यों सीखे ? किसी को क्या पड़ी है कि जीवन की महत्वाकाक्षाओं को खाक में मिलाकर त्याग और विराग मे उम्र काटे ? हाँ, जिनको सनक सवार हो गयी हो, उनकी वात निराली है।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१०३
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