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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१०९

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१२४ मानसरोवर आँसू बहाता, कहीं छात्रवृत्तियों दी गयीं, कहीं उनके चित्र बनवाये गये, पर सबसे अधिक महत्वशील वह मूर्ति थी जो श्रमजीवियों की ओर से प्रतिष्ठित हुई थी। मानकी को अपने पतिदेव का लोकसम्मान देखकर सुखमय कुतूहल होता था। उसे अब खेद होता था कि मैंने उनके दिव्य गुणों को न पहचाना, उनके पवित्र भावों और उच्च विचारों की कद्र न की। सारा नगर उनके लिए शोक मना रहा है। उनकी लेखनी ने अवश्य इनके ऐसे उपकार किये हैं जिन्हें ये मूल नहीं सकते , और मैं अन्त तक उनके मार्ग का कटक बनी रही, सदैव तृष्णा के वश उनका दिल दुखाती रही । उन्होंने मुझे सोने में मढ़ दिया होता, एक भव्य भवन बनवाया होता, या कोई जायदाद पैदा कर ली होती, तो मैं खुश होती, अपना धन्य-भाग्य समझती। लेकिन तब देश में कौन उनके लिए कौन उनका यश गाता ? यहीं एक से-एक धनिक पुरुष पड़े हुए हैं। वे दुनिया से चले जाते हैं और किसी को खबर भी नहीं होती। सुनती हूँ, पतिदेव के नाम से छात्रों को वृत्ति दी जायगी। जो लड़के वृत्ति पाकर विद्यालाम करेंगे वे मरते दम तक उनकी आत्मा को आशीर्वाद देंगे । शोक ! मैंने उनके आत्मत्याग का मर्म न जाना। स्वार्थ ने मेरी आँखों पर पर्दा डाल दिया था। मानकी के हृदय में ज्यों ज्यों ये भावनाएँ जागृत होती थी, उसे पति में श्रद्धा बढ़ती जाती थी । वह गौरवशीला स्त्री थी। इस कीर्तिगान और जनसम्मान से उसका मस्तक ऊँचा हो जाता था। इसके उपरान्त अब उसकी आर्थिक दशा पहले की-सी चिन्ताजनक न थी। कृष्णचन्द्र के असाधारण अध्यवसाय और बुद्धिबल ने उनकी वकालत को चमका दिया था । वह जातीय कामों में अवश्य भाग लेते थे, पत्रों में यथाशक्ति लेख भी लिखते थे, इस काम से उन्हे विशेष प्रेम था। लेकिन मानकी उन्हें हमेशा इन कामों से दूर रखने की चेष्टा करती रहती थी। कृष्णचन्द्र अपने ऊपर जब करते थे। मों का दिल दुखाना उन्हें मजूर न था। ईश्वरचन्द्र की पहली बरसी थी। शाम को ब्रह्मभोज हुआ । आधी रात तक गरीबों को खाना दिया गया। प्रात काल मानकी अपनी सेजगाड़ी पर बैठकर गगा नहाने गयी। यह उसकी चिरसचित अभिलाषा थी जो अब पुत्र की मातृभक्ति ने पूरी कर दी थी। यह उधर से लौट रही थी कि उसके कानों में बैंड की आवाज आयी और एक क्षण के बाद एक जलूस सामने आता हुआ