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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११०

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मृत्यु के पीछे १२५ । दिखायी दिया। पहले कोतल घोड़ों की माला थी, उसके बाद अश्वारोही स्वयसेवकों की सेना। उसके पीछे सैकड़ों सवारीगाड़ियाँ थीं। सबसे पीछे एक सजे हुए रथ पर किसी देवता की मूर्ति थी। कितने ही अादमी इस विमान को खींच रहे थे। मानकी सोचने लगी-'यह किस देवता का विमान है १ न तो रामलीला के ही दिन है, न रथयात्रा के ! सहसा उसका दिल जोर से उछल पड़ा। यह ईश्वरचन्द्र की मूर्ति थी जो श्रमजीवियों की ओर से बनवाई गयी थी और लोग उसे बड़े मैदान में स्थापित करने के लिए लिये जाते थे। वही स्वरूप था, वही वस्त्र, वही मुखाकृति । मूर्तिकार ने विलक्षण कोशल दिखाया था । मानकी का हृदय बॉसों उछलने लगा। उत्कण्ठा हुई कि परदे से निकल- कर इस जलूस के सम्मुख पति के चरणों पर गिर पड़े। पत्थर की मूर्ति मानव- शरीर से अधिक श्रद्धास्पद होती है। किन्तु कौन मुंह लेकर मूर्ति के सामने जाऊँ? उसकी आत्मा ने कभी उसका इतना तिरस्कार न किया था। मेरी धनलिप्सा उनके पैरों की बेड़ी न बनती तो वह न जाने किस सम्मानपद पर पहुंचते । मेरे कारण उन्हें कितना क्षोभ हुआ ! घरवालों की सहानूभूति बाहर- वालों के सम्मान से कहीं उत्साहजनक होती है। मैं इन्हें क्या कुछ न बना सकती थी, पर कभी उभरने न दिया। स्वामीजी, मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारी अपराधिनी हूँ, मैने तुम्हारे पवित्र भावों की हत्या की है, मैंने तुम्हारी श्रात्मा को दुःखी किया है। मैंने बाज को पिंजड़े मे बन्द करके रखा था । शोक सारे दिन मानकी को यही पश्चात्ताप होता रहा । शाम को उससे न रहा गया । वह अपनी कहारिन को लेकर पैदल उस देवता के दर्शन को चली जिसकी श्रात्मा को उसने दुःख पहुँचाया था । सन्ध्या का समय था । आकाश पर लालिमा छाई हुई थी । अत्ताचल की ओर कुछ गदल भी हो आये थे । सूर्यदेव कभी मेघपट में छिप जाते थे, कभी पाहर निकल आते थे। इस धूप-छोह में ईश्वरचन्द्र की मूर्ति दूर से कभी प्रभात की भाति प्रसन्न मुस और कभी सन्या की भाति मलिन देख पढ़ती थी। मानको उसके निकट गई, पर उसके मुस की और न देख सकी। उन आँखो मे करण- वेदना यो। मानकी को ऐसा मालूम हुआ, मानों वद मेरी योर तिरस्कान्पूर्ण भाव से देख रही है। उसकी आँखोसे ग्लानि और लज्ञा के मान योजने।