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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११२

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पाप का अग्निकुण्ड कुँवर पृथ्वीसिह महाराज यशवन्तसिंह के पुत्र थे । रूप, गुण और विद्या में प्रसिद्ध घे। ईरान, मिस्र, श्याम श्रादि देशों में परिभ्रमण कर चुके थे और कई भाषायों के पण्डित समझे जोते थे। इनकी एक बहिन थी जिसका नाम गजनन्दिनी था । यह भी जैसी रूपवती और सर्वगुणसंपन्ना थी वेसी ही प्रसन्न- वदना और मृदुभापिणी भी थी। कड़वी बात कहकर किसी का जी दुखाना उसे पसन्द नहीं था। पाप को तो वह अपने पास भी नहीं फटकने देती थी। यहाँ तक कि कई बार महाराज यशवन्तसिह ते भी वाद-विवाद कार चुकी थी और जब कभी उन्हें किसी बहाने काई अनुचित काम करते देखती, तो उसे यथाशक्ति रोकने की चेष्टा करती। इसका व्याह कुँवर धर्मसिंह से हुआ था । यह एक छोटी रियासत का अधिकारी और महाराज यशवन्तसिंह की सेना का उच्च पदाधिकारी था। धर्मसिंह बड़ा उदार और कर्मवीर था। इसे होनहार देखकर महाराज ने राजनन्दिनी को इसके साथ व्याह दिया था और दोनों बड़े प्रेम से अपना वैवाहिक जीवन बिताते थे । धर्मसिंह अधिकतर जोधपुर में ही रहता था । पृथ्वीसिंह उसके गाढे मित्र थे। इनमे जैसी मित्रता थी, वैसी भाइयों में भी नहीं होती। जिस प्रकार दोनों राजकुमारों मे मित्रता था, उसी प्रकार दोनों राजकुमारियों भी एक दूसरी पर जान देती थीं। पृथ्वीसिंह की स्त्री दुर्गाकुँवरि बहुत सुशील और चतुरा थी। ननद-भावज में अननन होना लोक रीति है, पर इन दोनों में इतना स्नेह था कि एक के विना दूसरी का कभी कल नदी पढ़ता था। दोनों लियाँ उत्कृत से प्रेम रखती थीं। एक दिन दोनो राजकुमारियो बाग की सैर में मम थीं कि एक दासी ने राजनन्दिनी के हाथ में एक कागज़ लाकर रख दिया । राजनन्दिनी ने उसे खोला तो वद संस्कृत का एक पत्र था। उसे पढ़कर उसने दामी से कहा कि उन्हें भेज दे। योड़ी देर में एक स्त्री सिर से पैर तक एक चादर ओढ़े आती दिखाई दी। इसकी उम्र २५ साल से अधिक न थी, पर रंग पीला था । आँखें १