पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१११

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२२६ मानसरोवर वह मूर्ति के चरणों पर गिर पड़ी और मुँह ढाँपकर रोने लगी। मन के भाव द्रवित हो गये। वह घर आई तो नौ बज गये थे । कृष्ण उसे देखकर बोले--अम्माँ, आज आप इस वक्त कहाँ गयी थी ? मानकी ने हर्ष से कहा-गयी थी तुम्हारे वाबूजी की प्रतिमा के दर्शन करने। ऐसा मालूम होता है, वही साक्षात् खड़े हैं । कृष्ण-जयपुर से बनकर आई है। मानकी-पहले तो लोग उनका इतना आदर न करते थे। कृष्ण-उनका सारा जीवन सत्य और न्याय की वकालत में गुजरा है । ऐसे ही महात्माओं की पूजा होती है । मानकी-लेकिन उन्होंने वकालत कब की ? कृष्ण-हाँ, यह वकाल्त नहीं की, जो मैं और मेरे हजारों भाई कर रहे हैं, जिससे न्याय और धर्म का खून रहा है। उनकी वकालत उच्चकोटि की थी। मानकी-अगर ऐसा है, तो तुम भी वही वकालत क्यों नहीं करते ? कृष्ण-बहुत कठिन है। दुनिया का जजाल अपने सिर लीजिए, दूसरों के लिए रोइए, दीनों की रक्षा के लिए लह लिये फिरिए, और इस कष्ट और अपमान और यत्रणा का पुरस्कार क्या है ? अपनी जीवनाभिलाषाओं की हत्या । मानकी-लेकिन यश तो होता है ? कृष्ण-हाँ, यश होता है । लोग आशीर्वाद देते हैं। मानकी-जब इतना यश मिलता है तो तुम भी वही काम करो। हम लोग उस पवित्र आत्मा की और कुछ सेवा नहीं कर सकते ता उसी वाटिका को चलाते जायँ जो उन्होंने अपने जीवन में इतने उत्सर्ग और भक्ति से लगाई । इससे उनकी प्रात्मा को शाति होगी। कृष्णचन्द्र ने माता को श्रद्धामय नेत्रों से देखकर कहा-करूँ तो, मगर संभव है, तब यह टीम टाम न निभ सके। शायद फिर वही पहले की-सी दशा हो जाय । मानकी-कोई हरज नहीं । ससार में यश तो होगा ? आज तो अगर धन की देवी भी मेरे सामने आये, तो मैं आँखें न नीची करूँ।