१३० मानसरोवर के लिए मैं जीती हूँ, नहीं तो मैंने ऐसो श्राफ़तें झेली हैं कि जीने की इच्छा अब नहीं रही। मेरे बाप विक्रमनगर के जागीरदार थे । मेरे सिवा उनके कोई संतान न थी। वे मुझे प्राणों से अधिक प्यार करते थे। मेरे ही लिए उन्होंने वरसों संस्कृत-साहित्य पढ़ा था । युद्ध विद्या में वे बड़े निपुण थे और कई बार लड़ाइयों पर गये थे। एक दिन गोधूलि-वेला में सब गायें जंगल से लौट रही थीं। मैं अपने द्वार पर खड़ी थी। इतने में एक जवान बाँकी पगड़ी बोधे हथियार सजाये, झूमता आता दिखाई दिया । मेरी प्यासी मोहिनी इस समय जंगल से लौटी थी, और उसका बच्चा इधर कलोलें कर रहा था । संयोगवश बच्चा उस नौजवान से टकरा गया । गाय उस आदमी पर झपटी । राजपूत बड़ा साहसी था। उसने शायद सोचा कि भागता हूँ तो कलंक का टीका लगता है, तुरन्त तलवार म्यान से खींच ली और वह गाय पर झपटा । गाय झल्लाई हुई तो थी ही, कुछ भी न हरी । मेरी आँखों के सामने उस राजपूत ने उस प्यारी गाय को जान से मार डाला। देखते-देखते सैकड़ों श्रादमी जमा हो गये और उसको टेढ़ी-सीधी सुनाने लगे। इतने में पिताजी भी आ गये। वे सन्ध्या करने गये थे। उन्होंने आकर देखा कि द्वार पर सैकड़ों आदमियों की भीड़ लगी है, गाय तड़प रही है और उसका बच्चा खड़ा रो रहा है। पिताजी की श्राहट सुनते ही गाय कराहने लगी और उनकी ओर उसने कुछ ऐसी दृष्टि से देखा कि उन्हें क्रोध श्रा गया । मेरे बाद उन्हें वह गाय ही प्यारी थी। वे ललकारकर बोले-मेरी गाय किसने मारी है ? नवजवान लजा से सिर झुकाये सामने आया और बोला-मैंने। पिताजी-तुम क्षत्रिय हो ? राजपूत-हाँ! पिताजी-तो किसी क्षत्रिय से हाथ मिलाते ? राजपूत का चेहरा तमतमा गया। चोला-कोई क्षत्रिय सामने आ जाय । इनारों आदमी खडे थे, पर किसी का साहस न हुआ कि उस राजपूत का सामना करे । यह देखकर पिताजी ने तलवार खींच ली और वे उस पर टूट पहे। उसने भी तलवार निकाल ली और दोनों आदमियों में तलवारें चलने
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११५
दिखावट