पाप का अग्निकुण्ड
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लगी। पिताजी बूढे थे ; सीने पर जखम गहरा लगा, गिर पड़े। उन्हें उठाकर
लोग घर पर लाये। उनका चेहरा पीला था , पर उनकी आँखों से चिनगारियों
निकल रही थी। मैं रोती हुई उनके सामने पायो । मुझे देखते ही उन्होंने सब
श्रादमियों को वहाँ से हट जाने का सकेन किया। जब मैं और पिताजी अकेले
रह गये, तो वे बोले-वेटी, तुम राजपुतानी हो ?
मैं-जी हाँ।
पिताजी-राजपूत वात के धनी होते हैं ?
मैं-जी हों।
पिताजी -इस राजपूत ने मेरी गाय की जान लो है, इसका बदला तुम्हे
लेना होगा।
मै-आपकी श्रागा का पालन करूँगी।
पिताजी-अगर मेरा वेटा जीता होता तो मैं यह बोझ तुम्हारी गर्दन पर
न रखता।
मैं-आपको जो कुछ आशा होगी, मैं सिर-आँखों से पूरी करूँगी ।
पिताजी-तुम प्रतिज्ञा करती हो ?
मैं-जी हों।
पिताजी-इस प्रतिज्ञा को पूरा कर दिखायोगी।
मैं-जहाँ तक मेरा वश चलेगा, मैं निश्चय यह प्रतिभा पूरी करूँगी।
पिताजो-यह मेरी तलवार लो | जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत
के कलेजे में न भोक दो, तब तक भाग-विलास न करना ।
यह कहते कहते पिताजी के प्राण निकल गये । मैं उसी दिन से तलवार को
कंपलों में छिपाये उस नौजवान राजपूत की खोज में घूमने लगी। वर्षों बीत
गये। में कमी बस्तियों में जाती, कभी पहाड़ों-जंगलों की खाक छानती; पर उस
नौजवान का कहीं पता न मिलता । एक दिन में बैठी हुई अपने फूटे भाग पर
रो रही थी कि वदी नौजवान आमी प्राता दुधा दिग्पायी दिया । मुझे देखकर
उसने पूछा, त् कौन है ? मैंने कहा, मैं दुखिया वासगी हूँ, श्राप मुझपर दया
कीजिए और मुझे कुछ खाने को दीजिये । राजपूत ने कहा, अच्छा, मेरे साथ आ।
मैं उठ खरी दुई । वह आदमी येसुध था। मैंने बिजली की तरह लपककर
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११६
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