मानसरोवर
'ऐसे निर्दयी की गर्दन गुट्ठल छुरी से काटनी चाहिए।'
'वेशक, यही मेरा भी विचार है । यदि मैं किसी कारण यह काम न कर
सकूँ, तो तुम मेरा प्रतिज्ञा पूरी कर दोगे ?
'बड़ी खुशी से । उसे पहचानते हो न !
'हाँ, अच्छी तरह ।'
'तो अच्छा होगा, यह काम मुझको ही करने दो, तुम्हें शायद उस पर
दया का जाय।
'बहुत अच्छा , पर यह याद रखो कि वह आदमी बड़ा भाग्यशाली है !
फई बार मौत के मुँह से बचकर निकला है। क्या आश्चर्य है कि तुमको भी
उस पर दया आ जाय । इसलिए तुम प्रतिज्ञा करो कि उसे जरूर जहन्नुम में
पहुँचाश्रोगे।'
'मैं दुर्गा की शपथ खाकर कहता हूँ कि उस श्रादमी को अवश्य मारूंगा।'
'बस, तो हम दोनों मिलकर कार्य सिद्ध कर लेंगे। तुम अपनी प्रतिज्ञा पर
दृढ़ रहोगे न
'क्यों ? क्या मैं सिपाही नहीं हूँ ? एक बार जो प्रतिज्ञा को, समझ लो कि
वह पूरी करूँगा, चाहे इसमें अपनी जान ही क्यों न चली जाय ।'
'सब अवस्थाओं में
'हाँ, सब अवस्थाओं में ।
'यदि वह तुम्हारा कोई बन्धु हो तो?'
पृथ्वीसिंह ने धर्मसिंह को विचारपूर्वक देखकर कहा- कोई बन्धु हो तो ?
धर्मसिंह-हाँ, सम्भव है कि तुम्हारा कोई नातेदार हो ।
पृथ्वीसिंह-( जोश में ) कोई हो, यदि मेरा भाई भी हो, तो भी जीता
चुनवा हूँ।
धर्मसिह घोड़े से उतर पड़े । उनका चेहरा उतरा हुआ था और अोठ कॉप
रहे थे। उन्होंने कमर से तेगा खोलकर जमीन पर रख दिया और पृथ्वीसिंह
को ललकारकर कहा-पृथ्वीसिंह, तैयार हो जात्रो। वह दुष्ट मिल गया ।
पृथ्वीसिंह ने चौंककर इधर-उधर देखा तो धर्मसिंह के सिवाय और कोई दिखाई
न दिया।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१२१
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