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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१३२

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आभूपण १४७ सन्नाटा छा गया । जैसे शार-गुल मचानेवाले बालका म मास्टर पहुंच जाय । सभी ने सिर झुका लिए और सिमट गयो । मगला तुरन्त उठकर सामनेवाले कमरे में चली गया। पति को बुलाया और आहिस्ते से बोली -- व या इतना रिगड़ रहे हो ? "मैं इस वक गाना नहाँ सुनना चाहता।" "तुम्हे सुनाता ही कौन है ? क्या मेरे कानों पर भी तुम्हारा अधिकार है " "प.जूल को बमचख-" "तुमसे मतलब ?" "मैं अपने घर में यह कालादल न मचने दूंगा ?" "ता मेरा घर कहीं और है ?" सुरेशसिह इसका उत्तर न देकर बोले-इन सबसे कह दो, फिर किसी वक्त आयें। नगला-इसलिए कि तुम्हें इनका पाना अच्छा नहीं लगता ? "हॉ, इसीलिए।" "तुम क्या सदा वही करते हो, जो मुझे अच्छा लगे ? तुम्हारे यहाँ मित्र पाते हैं हँसी ठो को आवाज अन्दर सुनाई देतो है । मैं कभी नहीं कहती कि इन लोगों का आना बन्द कर दो । तुम मेरे कामों में दस्तदाजी क्यों करते हो?" सुरेश ने तेज होकर कहा- इसलिए कि मैं घर का स्वामी हूँ। मगला-तुम बाहर के स्वामो हो, यहाँ मरा अधिकार है। सुरेश-क्या व्यर्थ का बक-बक करती हा ? मुझे चिढ़ाने से क्या मिलेगा? मगला जरा देर चुपचाप खड़ा रहो । वह पति के मनोगत भावों को भीमासा कर रही थी। फिर गाली-अच्छी बात है। जब इस घर में मेरा कोई अधिकार नहीं, तो न रहेगी। य तफ भ्रम में थी। आज तुमने यह भ्रम मिटा लिया । मेरा एस घर पर अधिकार कभी नहीं था । जिस स्त्री का पति के हप पर अधिकार नहीं, उसका उसका मंगात र भी कोई कार नहीं हो सकता। गुश ने न जेन हार कहा-गत का बतंगः क्यों बनाती हो ! मेरा यह माम न पा । कुछ कर समझ गयो ।