१४८ मानसरोवर मगला-मन की बात श्रादमी के मुँह से अनायास ही निकल जाती है। सावधान होकर हम अपने भावों को छिपा लेते हैं। सुरेश को अपनी असजनता पर दुःख तो हुअा, पर इस भय से कि मैं इसे जितना ही मनाऊँगा, उतना ही वह और जली कटी सुनायेगी, उसे वहीं छोड़कर बाहर चले आये। प्रातःकाल ठडी हवा चल रही थी । सुरेश खुमारी में पड़े हुए स्वप्न देख रहे थे कि मगला सामने से चली जा रही है। चौंक पड़े। देखा, द्वार पर सचमुच मगला खड़ी है । घर की नौकरानियाँ आँचल से आँखें पोंछ रही हैं। कई नौकर श्रास पास खड़े हैं । सभी को अखेिं सजल और मुख उदास हैं । मानों बहू विदा हो रही है। सुरेश समझ गये कि मगला को कल की बात लग गयी। पर उन्होंने उठकर कुछ पूछने की, मनाने की या समझाने की चेष्टा नहीं की। यह मेरा अपमान कर रही है, मेरा सिर नीचा कर रही है । जहाँ चाहे, जाय । मुझसे कोई मतलब नहीं। यों बिना कुछ पूछे गये चले जाने का अर्थ यह है कि मैं इसका कोई नहीं । फिर मैं इसे रोकनेवाला कौन ! वह यों ही जड़वत् पड़े रहे और मगला चली गयी। उनकी तरफ़ मुँह उठाकर भी न ताका । मंगला पाँव-पैदल चली जा रही थी। एक बड़े ताल्लुकेदार की औरत के लिए यह मामूली बात न थी। हर किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि उससे कुछ कहे । पुरुष उसकी राह छोड़कर किनारे खड़े हो जाते थे। नारियों द्वार पर खड़ी तरुण कौतूहल से देखती थीं और आँखों से कहती थीं-हा निर्दयी पुरुष! इतना मी न हो सका कि एक डोला पर तो बैठा देता ! इस गाँव से निकलकर मगला उस गाँव में पहुँची, जहाँ शीतला रहती थी । शीतला सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो गयी और मगला से बोली- बहन, ज़रा श्राकर दम ले लो। मगला ने अन्दर जाकर देखा तो मकान जगह-जगह से गिरा हुआ
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