श्राभूपण १५१ कहत्ती, मेरी छाती पर सौत लाकर बैठा दी, अब बातें बनाती है ? इस घोर विवाट में शीतला अपना विरह-शोक भूल गयी। सारी श्रमगल शंकाएँ इस विरोधाग्नि में शांत हो गयी । बस, अब यहाँ चिंता थी कि इस दशा से छुटकारा कैसे हो ? मो और सास, दोनों ही का यमराज के सिवा और कोई ठिकाना न था ; पर यमराज उनका स्वागत करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं जान पढ़ते थे । सैकड़ों उपाय सोचती ; पर उस पथिक की भाँति, जो दिन-भर चलकर भी अपने द्वार ही पर खड़ा हो, उसकी सोचने की शक्ति निश्चल हो गयी या ! चारों तरफ़ निगाहें दौड़ती कि कहीं कोई शरण का स्थान है ! पर कहीं निगाह न जमती। एक दिन वह इसी नेराश्य को अवस्था में द्वार पर खड़ी थी। मुसोयत में, चित्त की उद्विग्नता मे, इंतजार में द्वार से हमें प्रेम हो जाता है। सहसा उसने चावू सुरेशसिंद को सामने से घोड़े पर जाते देखा। उनकी आँखें उसकी आर फिरी । आँखें मिल गयीं। वह झिमककर पीछे हट गयी। किवाड़े बन्द कर लिये । कुँवर साहव आगे बढ़ गये । शीतला को खेद हुया कि उन्होने मुझे देख लिया। मेरे सिर पर सारी फटी हुई थी, चारों तरफ़ उसमें पेवन्द लगे ये। वह अपने मन में न जाने क्या कहते होगे ? कुँवर साहय को गाँववालों से विमलसिंह के परिवार के कष्टों की खबर मिली थी। वह गुप्तरूप से उनकी कुछ सहायता करना चाहते थे। पर शीतला को देखते ही सकोच ने उन्हें ऐसा दवाया कि द्वार पर एक क्षण भी न रुक सक। मगला के गृह-त्याग के तीन महीने पीछे आज वह पहली बार घर से निकले थे। मारे शर्भ के बादर बैठना छोड़ दिया था। इसमें सदेह नहीं कि कुंवर साहब मन में शीतला के रूप-रस का आस्वादन करते । मंगला के जाने के बाद उनके हृदय में एक विचित्र दुष्णम्ना जाग उठी। क्या किसी उपाय से यह सुन्दरी मेरी नहीं हो सकती ! विमल का मुद्दत से पता नही । बहुत समय है कि यह प्रब सार में न हो। किन्तु वह इस दुप्कल्पना को विचार से दवाते रहते थे । शीतला को विपत्ति की कथा सुनकर भी १९ उसकी सहायता करते टरते थे। कौन जाने, वासना यही वेष रखकर मेरे विचार और विवेक पर कुठाराघात करना चाहती हो । अन्त को लालसा
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