पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१३८

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श्राभूपण १५३ . चुगा रही थी। उसे सुरेश नेपाल से उसी के वास्ते लाये थे । इतने में सुरेश आकर ऑगन में बैठ गये। शीतला ने पूछा-कहाँ से आते हो भैया ? सुरेश [-गया था ज़रा थाने । कुछ पता नहीं चला। रंगून में पहले कुछ पता मिला था। बाद को मालूम हुआ कि वह कोई और श्रादमी है। क्या करूँ ? इनाम और बढ़ा हूँ? शीतला-तुम्हारे पास रुपये बढे हैं, फूको । उनकी इच्छा होगी, तो श्राप ही श्रावेंगे। सुरेश-एक बात पूछू, बतायोगी ? किस बात पर तुमसे रूठे थे ? शीतला-कुछ नहीं, मैंने यही कहा कि मुझे गहने बनवा दो। कहने लगे, मेरे पास है क्या ? मैंने कहा (लजाकर ), तो व्याह क्यों किया ? वस, वातों ही बातों में तकरार हो गई। इतने में शीतला की सास या गयी । सुरेश ने शीतला की माँ और भाइयों को उनके घर पहुंचा दिया था, इसलिए यहाँ अब शान्ति थी। सास ने बहू की बात सुन ली थी। कर्कश स्वर से बोली-बेटा, तुमसे क्या परदा है। यह महारानी देखने ही को गुलाब का फूल हैं, अन्दर सब काँटे हैं। यह अपने वनाव- सिंगार के आगे विमल की बात ही न पूछती थीं। बेचारा इस पर जान देता या ; पर इसका मुँह हो न सीघा होता था। प्रेम तो इसे छू नहीं गया । अन्त को उसे देश से निकालकर इसने दम लिया। शीतला ने रुष्ट होकर कहा-स्या वही अनोग्वे धन कमाने घर से निकले ई १ देश-विदेश जाना मदों का काम ही है । सुरेश-यूरोप में तो धनभोग के सिवा स्त्री-पुरुप में कोई सम्बन्ध ही नहीं होता | वहन ने योरप में जन्म लिया होता, तो हीरे-जवाहिर से जगमगाती होती । शीतला, अब तुम ईश्वर से यही कहना कि सुन्दरता देते हो, तो योरप में जन्म दो। शीतला ने व्यथित होकर कहा--जिनके भाग्य में लिखा है, वे यही सोने से लदी हुई हैं। मेरी भाँति सभी के करम थोदे ही फूट गगे हैं ! सुरेशसिंह को ऐसा जान पड़ा कि शीतला की मुखकान्ति मलिन हो गयी >