१५२ मानसरोवर की कपट-लीला उन्र्दै मुलावा दे ही गयो । वह शीतला के घर उसका हालचाल पूछने गये । मन में तर्क किया-यह कितना घोर अन्याय है कि एक अबला ऐसे सकट में हो और मैं उसकी बात भी न पूछू १ पर वहाँ से लौटे, तो बुद्धि और विवेक की रस्सियाँ टूट गयी थीं और नौका मोह और वासना के अपार सागर में डुबकियों खा रही थी । श्राह ! यह मनोहर छवि! यह अनुपम सौंदर्य! एक क्षण में उन्मत्तों की भाँति बकने लगेयह प्राण और यह शरीर तेरी भेंट करता हूँ । ससार हँसेगा, हँसे । महापाप है, हो। कोई चिन्ता नहीं। इस स्वर्गीय आनन्द से मैं अपने को वंचित नहीं कर सकता ? वह मुझसे भाग नहीं सकती । इस हृदय को छाती से निकालकर उसके पैरों पर रख दूँगा । विमल ? मर गया । नहीं मरा, तो अब मरेगा, पाप क्या है ? बात नहीं। कमल कितना कोमल, कितना प्रफुल्ल, कितना ललित है ! क्या उसके अधरों- अकस्मात् वह ठिठक गये, जैसे कोई मूली हुई बात याद आ जाय । मनुष्य में बुद्धि के अन्तर्गत एक अज्ञात बुद्धि होती है । जैसे रण-क्षेत्र में हिम्मत हारकर भागनेवाले सैनिकों को किसी गुस स्थान से आनेवाली कुमक सँभाल लेती है, वैसे ही इस अज्ञात बुद्धि ने सुरेश का सचेत कर दिया। वह सँभल गये । ग्लानि से उनकी आँखें भर आयीं। वह कई मिनट तक किसी दण्डित कैदी की भाँति क्षुब्ध खड़े सोचते रहे। फिर विजय-ध्वनि से कह उठे-कितना सरल है। इस विकार के हाथी को सिंह से नहीं, चिंउटी से मारूँगा। शीतला को एक बार 'बहन' कह देने से ही यह सब विकार शात हो जायगा । शीतला ! बहन ! मैं तेरा भाई हूँ ! उसी क्षण उन्होंने शीतला को पत्र लिखा-बहन, तुमने इतने कष्ट झेले , पर मुझे खबर तक न दी ! मैं कोई गैर न था। मुझे इसका दुःख है । खैर, अब ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हें कष्ट न होगा। इस पत्र के साथ उन्होंने नाज और रुपये मेजे। शीतला ने उत्तर दिया-भैया, क्षमा करो। जब तक जिऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी । तुमने मेरी डूबती नाव पार लगा दी। ५ ) कई महीने बीत गये । सध्या का समय था । शीतला अपनी मैना को चारा
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