राजा हरदौल १५
सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाडे पर चोब पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछालकर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनो लाँगोटा कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गये । तब दोनों तरफ़ से तलवारें निकली और दोनों के बगलों में चली गयीं। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियों निकलने लगीं। पूरे तीन घण्टे तक यही मालूम होता रहा कि दो अंगारे हैं। हज़ारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आंधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब कभी कालदेव गिरहदार हाथ चलाता या कोई पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दन आप-ही-आप उठ जाती ; पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े से अन्दर तलवारों की खींचतान थी; पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इससे भी बढ़कर तमाशा था। बार-बार,जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दुःख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक कादिर खाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया, मानों बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।
कालदेव के गिरते ही बुन्देलों को सन्न न रहा । हर एक के चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमण्ड की तस्वीर खिंच गयी । हज़ारों आदमी जोश में आकर अखाड़े की ओर दौड़े, पर हरदौल ने कहा-ख़बरदार ! अब कोई न बढ़े। इस आवाज़ ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया । दर्शकों को रोककर जब वे अखाड़े में गये और कालदेव को देखा, तो आँखों में आंसू भर आये । जख्मी शेर जमीन पर तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गये थे ।
आज का दिन बीता, रात आयी ; पर बुन्देलों की आँखों में नींद कहाँ ? लोगों ने करवटें बदलकर रात काटी। जैसे दुःखित मनुष्य विकलता से सुबह की बाट जोहता है, उसी तरह बुन्देले रह-रहकर आकाश की तरफ़ देखते और उसकी धीमी चाल पर अँझलाते थे। उनके जातीय घमण्ड पर गहरा घाव लगा था । दूसरे दिन ज्यों ही सूर्य निकला, तीन लाख बुन्देले तालाब के किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ चला, दिलों में