पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्राभूषण - चुगा रही थी। उसे सुरेश नेपाल से उसी के वास्ते लाये थे। इतने में सुरेश याकर आँगन में बैठ गये । शीतला ने पूछा-कहाँ से आते हो भैया ! सुरेश [-गया था ज़रा थाने । कुछ पता नहीं चला। रगून में पहले कुछ पता मिला था। वाद को मालूम हुआ कि वह कोई और आदमी है। क्या करूँ ? इनाम और बढ़ा दें शीतला-तुम्हारे पास रुपये बढे हैं, फूको । उनकी इच्छा होगी, तो आप ही आवेंगे। सुरेश-एक बात पू, बतायोगी ? किस बात पर तुमसे रूठे थे ? शीतला-कुछ नहीं, मैंने यही कहा कि मुझे गहने बनवा दो। कहने लगे, मेरे पास है क्या ? मैंने कहा (लजाकर ), तो व्याह क्यों किया ? बस, वातों ही बातों में तकरार हो गई। इतने में शीतला की सास श्रा गयी । सुरेश ने शीतला की माँ और भाइयों को उनके घर पहुंचा दिया था, इसलिए यहाँ अव शान्ति यो । सास ने बहू की बात सुन ली थी। कर्कश स्वर से बोली-बेटा, तुममे क्या परदा है। यह महारानी देखने ही को गुलाब का फूल हैं, अन्दर सब काँटे हैं। यह अपने बनाव- सिंगार के आगे विमल की बात ही न पूछनी थीं। वेचारा इस पर जान देता था ; पर इसका मुँह हो न सीधा होता था। प्रेम तो इसे छू नहीं गया अन्त को उसे देश से निकालकर इसने दम लिया। शीतला ने कष्ट होकर कहा-क्या वही अनोग्ये धन कमाने घर से निकले है ? देश-विदेश जाना मदों का काम ही है। सुरेश-यूरोप में तो धनभोग के सिवा स्त्री-पुरुष में कोई सम्बन्ध ही नहीं होता। बहन ने योरप में जन्म लिया होता, तो हीरे-जवाहिर से जगमगाती होती । शीतला, अब तुम ईश्वर से यही कहना कि नुन्दरता देते हो, तो पारस में जन्मदा शोतला ने व्यथित होकर कहा-जिनके भाग्य में लिखा है, वे यहीं सोने से लदी हुई हैं। मेरी भाँति सभी के करम थोड़े ही फूट गये हैं ! हरेशसिंह को ऐसा जान पदाकि शीतला की मुखकान्ति मलिन हो गयी 3