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मानसरोवर
है । न वह चौंकती है, न हिचकती है, न घबराती है । इस भिखारिनी की नसों
में रानी का रक्त है।
यहाँ से भिखारिनी ने अयोध्या की राह ली। वह दिन-भर विकट मार्गों में
चलती और रात को किसी सुनसान स्थान पर लेट रहती थी। मुख पीला पड़
गया था। पैरों में छाले थे। फूल-सा बदन कुम्हला गया था ।
वह प्रायः गाँव में लाहौर की रानी के चरचे सुनती। कभी कभी पुलिस के
आदमी भी उसे रानी की टोह में दत्तचित्त देख पड़ते। उन्हें देखते ही भिखा-
रिनी के हृदय में सोई हुई रानी जाग उठती । वह आँखें उठाकर उन्हें घुणा
की दृष्टि से देखती और शोक तथा क्रोध से उसकी आँखें जलने लगती।
एक दिन अयोध्या के समीप पहुंचकर रानी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई थी।
उसने कमर से कटार निकालकर सामने रख दी थी । वह सोच रही थी कि कहाँ
जाऊँ ? मेरी यात्रा का अन्त कहाँ है ? क्या इस ससार में अब मेरे लिए कहीं
ठिकाना नहीं है ? वहाँ से थोड़ी दूर पर श्रामों का एक बहुत बड़ा बाग था ।
उसमें बड़े-बड़े डेरे और तम्बू गड़े हुए थे। कई एक सन्तरी चमकीली वर्दियाँ
पहने टहल रहे थे, कई घोड़े बँधे हुए थे। रानी ने इस राजसी ठाट बाट को
शोक की दृष्टि से देखा । एक बार वह भी काश्मीर गयो थीं। उसका पड़ाव
इससे कहीं बढकर था।
बैठे बैठे सन्ध्या हो गयी। रानी ने वहीं रात काटना निश्चय किया। इतने
में एक बूढ़ा मनुष्य टहलता हुआ आया और उसके समीप खड़ा हो गया।
ऐंठी हुई दादी थी, शरीर में सटी हुई चपकन यी, कमर में तलवार लटक रही
थी। इस मनुष्य को देखते ही रानी ने तुरन्त कटार उठाकर कमर में खोंस ली।
सिपाही ने उसे तीव्र दृष्टि से देखकर पूछा-बेटी, कहाँ से आती हो ?
रानी ने कहा-बहुत दूर से ।
'कहाँ जाओगी
'कह नहीं कह सकती, बहुत दूर ।'
सिपाही ने रानी की ओर फिर ध्यान से देखा और कहा-जरा अपनी
कटार मुझे दिखाश्रो । रानी कटार सँभालकर खड़ी हो गयी और तीव्र स्वर से
बोली-मित्र हो या शत्रु ? ठाकुर ने कहा-मित्र । सिपाही के बातचीत करने
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१५३
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