जुगुनू की चमक १६७ प्रातःकाल का सुहावना समय था। नेपाल के महाराजा सुरेन्द्रविक्रमसिंह का दरबार सजा हुआ था। राज्य के प्रतिष्ठित मन्त्री अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे । नेपाल ने एक बड़ी लड़ाई के पश्चात् तिव्वत पर विजय पायी थी। इस समय सन्धि की शर्तों पर विवाद छिड़ा था। कोई युद्ध-व्यय का इच्छुक था, कोई राज्य विस्तार का। कोई-कोई महाशय वार्षिक कर पर जोर दे रहे ये । केवल राणा जगवहादुर के आने की देर थी। वे कई महीनों के देशाटन के पश्चात् श्राज ही रात को लौटे थे और यह प्रसंग, उन्हीं के श्रागमन की प्रतीक्षा कर रहा था, 'प्रय मन्त्रि-सभा में उपस्थित किया गया था। तिव्वत के यात्री, आशा और भय की दशा में, प्रधान मन्त्री के मुख से अन्तिम निर्णय सुनने को उत्सुक हो रहे थे। नियत समय पर चोपदार ने राणा के श्रागमन की सूचना दी। दरबार के लोग उन्हें सम्मान देने के लिए खड़े हो गये । महाराज को प्रणाम करने के पश्चात् ये अपने सुसजित श्रासन पर बैठ गये। महाराज ने कहा-राणाजी, श्राप सन्धि के लिए कौन प्रस्ताव करना चाहते थे ? राणा ने नम्र भाव से कहा-मेरी अल्प बुद्धि में तो इस समय कठोरता का व्यवहार करना अनुचित है। शोकाकुल शत्रु के साय दयालुता का आचरण करना सर्वदा हमारा उद्देश्य रहा है । क्या इस अवसर पर स्वार्थ क माह म इम अपने बहुमूल्य उद्देश्य को भूल जायेंगे ? हम ऐसी सन्धि चाहते हैं जो हमारे हृदय को एक कर दे। यदि तिन्यत का दरवार हमे व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने को कटिवद्ध हो, तो हम सन्धि करने के लिए सर्वथा उद्यत है । मन्धि-मण्डल में विवाद श्रारम्भ हुआ। सबकी सम्मति इस दयालुता के अनुसार न थी; किन्तु महाराज ने राणा का समर्थन किया । यद्यपि अधिकाश सदस्यों को शगु के साथ ऐसी नरमी पसन्द न थी, तथापि महाराज के विपक्ष में बोलने का किसी को साहस न हुआ। यात्रियों के चले जाने के पश्चात् राणा जंगवहादुर ने संदे होकर कहा- सभा के उपस्थित सबनो, श्राज नेपाल के इतिहास में एक नयी घटना होनेवाली है, जिसे मैं आपकी जातीय नीतिमत्ता की परीक्षा समझता है। इसमें सफल होना श्रापके ही कर्तव्य पर निर्भर है। आज राज सभा में आते समय
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