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मानसरोवर
रानी ने रात इसी वृक्ष की छाया में काटी। सिपाही भी वहीं सोया ।
प्रातःकाल वहाँ दो तीव्रगामी घोड़े देख पड़े। एक पर सिपाही सवार था और
दूसरे पर एक अत्यन्त रूपवान् युवक । यह रानी चन्द्र कुँवरि थी, जो अपरे
रक्षा-स्थान की खोज में नेपाल जाती थी। कुछ देर पीछे-यह पड़ाव किसक
है ? सिपाही ने कहा-राणा जगबहादुर का। वे तीर्थयात्रा करने आये हैं
किन्तु हमसे पहले पहुँच जायेंगे |
रानी-तुमने उनसे मुझे यही क्यों न मिला दिया। उनका हार्दिक भाव
प्रकट हो जाता।
सिपाही-यहाँ उनसे मिलना असम्भव था। आप जासूसों की दृष्टि से न
बच सकतीं।
उस समय यात्रा करना प्राण को अर्पण कर देना था। दोनों यात्रियों को
अनेकों वार डाकुओं का सामना करना पड़ा। उस समय रानी की वीरता,
उसका युद्ध-कौशल तथा फुर्ती देखकर बूढ़ा सिपाही दाँतों तले अंगुली दबाता
था । कभी उनकी तलवार काम कर जाती और कभी घोड़े की तेज चाल ।
यात्रा बढ़ी लम्बी थी। जेठ का महीना मार्ग में ही समाप्त हो गया । वर्षा
ऋतु आयी । आकाश में मेघ-माला छाने लगी। सूखी नदियों उतरा चलीं।
पहाड़ी नाले गरजने लगे । न नदियों में नाव, न नालों पर घाट , किन्तु घोड़े
सधे हुए थे। स्वय पानी में उतर जाते और डूबते-उतराते, बहते, भँवर खाते
पार जा पहुँचते । एक बार बिच्छू ने कछुए की पीठ पर नदी की यात्रा की थी।
यह यात्रा उससे कम भयानक न थी।
कहीं ऊँचे-ऊँचे साखू और महुए के जगल थे और कहीं हरे-भरे जामुन के
वन । उनकी गोद में हाथियों और हिरनों के झुण्ड कलोलें कर रहे थे। धान
की क्यारियाँ पानी से भरी हुई थीं। किसानों की स्त्रियाँ धान रोपती थीं और
सुहावने गीत गाती थीं। कहीं उन मनोहारी ध्वनियों के बीच में, खेत की
मोड़ों पर छाते की छाया में बैठे हुए जमींदारों के कठोर शब्द सुनाई देते थे ।
इसी प्रकार यात्रा के कष्ट सहते, अनेकानेक विचित्र दृश्य देखते दोना
यात्री तराई पार करके नेपाल की भूमि में प्रविष्ट हुए ।
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१५५
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