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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१६०

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जुगुनू की चमक १७६ कि पंजाब की महारानी चन्द्रकुंवरि का शुभागमन हुआ है। जनरल रणवीर- सिंह और जनरल समरधीरसिंह बहादुर ५००० सेना के साथ महारानी की अगवानी के लिए चले। अतिथि-भवन की सजावट होने लगी। बाज़ार अनेक माँति की उत्तम सामग्रियों से सज गये। ऐश्वर्य की प्रतिष्ठा व सम्मान सब वही होता है, किन्तु किसी ने भिखारिनी का ऐसा सम्मान देखा है ? सेनाएँ बैंड बजाती और पताका फहराती हुई एक. उमदी नदी की भाँति जाती थीं। सारे नगर में श्रानन्द ही आनन्द या। दोनों ओर मुन्दर वस्त्राभूषणों से सजे दर्शकों का समूह खड़ा था। सेना के कमाडर आगे-आगे घोड़ों पर सवार थे। सबके आगे राणा जगवहादुर जातीय अभिमान के मद मे लीन, अपने सुवर्णखवित हौदे में बैठे हुए थे। यह उदारता का एक पत्रिन दृश्य या । धर्मशाला के द्वार पर वह जुलूस रुका । राणा हाथी से उतरे । महारानी चन्द्रकुंवरि कोठरी से बाहर निकल आई। राणा ने मुककर वन्दना की। रानी उनकी पोर आश्चर्य से देखने लगीं। यह वही उनका मित्र बूढ़ा सिपाही था। श्रीखें भर आई। मुसकराई । खिले हुए फूल पर से प्रोस की बूंदें टपी । रानी बोली-मेरे बूढ़े ठाकुर, मेरी नाव पार लगानेवाले, किस माति तुम्हारा गुण गाऊँ? राणा ने सिर झुकाकर कहा-आपके चरणारविन्द से हमारे भाग्य उदय हो गये। नेपाल की राजसभा ने पच्चीस हजार रुपये से महारानी के लिए एक उत्तम भवन बनवा दिया और उनके लिए दस हजार रुपया मासिक नियत कर दिया। वह भवन श्रात तक वर्तमान है और नेपाल की शरणागतप्रियता तथा प्रापालन-तत्वरता का स्मारक है। पजाय की रानी को लोग आज तक पाद करते हैं। यद यद सोती है जिससे जातियों यश के नुनहले शिखर पर पहुँचती है।