२८० मानसरोवर $ नहीं चाहता, लेकिन जहाँ कोई पूछनेवाला नहीं है, वहाँ पड़े रहना चेहयाई है । कहीं दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा और पेट पाल्ता रहूँगा । और क्सि लायक हूँ? ज्ञानू०-तुमसे अम्मा क्यों इतना चिढ़ती हैं ? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती हैं। सत्य०-मेरे नसीब खोटे हैं, और क्या । शानू०-तुम लिखने-पढ़ने में जी नहीं लगाते ? सत्य-लगता ही नहीं, कैसे लगाऊँ ? जब कोई परवा नहीं करता तो मैं भी सोचता हूँ-उह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा | बला से ! ज्ञानू०~-मुझे भूल तो न जाआगे ? मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा, मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना । सत्य-तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्ठी लिखूगा । ज्ञानू०-( रोते रोते ) मुझे न जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है ! सत्य०-मैं तुम्हें सदैव याद रखूगा । यह कहकर उसने फिर भाई को गले से लगाया और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी न थी और वह कलकत्ते जा रहा था। (७) सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योकर पहुंचा, इसका वृत्तान्त लिखना व्यर्थ है । युवकों में दुस्साहस की मात्रा अधिक होती है। वे हवा में किले बना सकते हैं, धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँचना ऐसा कष्ट साध्य न या । सत्यप्रकाश चतुर युवक था । पहिले ही उसने निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके वेग में लिखने की सामग्री मौजूद थी। बड़े शहर में जीविका का प्रश्न कठिन भी है और सरल भी है । सरल है उनके लिए, जो हाथ से काम कर सकते हैं, कठिन है उनके लिए, जो कल्म से काम करते हैं। सत्यप्रकाश मजदूरी करना नीच काम समभता था। उसने एक धर्मशाला में असबाव रखा। बाद में शहर के मुख्य स्थानों का निरीक्षण करके एक डाकघर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया और अपढ़ मजदूरों की चिट्टियाँ, 4
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