गृह-दाह १७६ सत्य०-विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है। देव०-तुम्हारे भाग्य में क्या है ? सत्य--भीख मांगना । देव०-तो फिर भीख ही माँगो । मेरे घर से निकल जायो। देवप्रिया भी आ गयी । बोली-शरमाता तो नहीं, और बातों का जवाब देता है! सत्य-जिनके भाग्य में भीख मांगना होता है, वही बचपन में अनाथ हो जाते हैं। देवप्रिया-ये जली-कटी बातें अब मुझमे न सही जायेंगी। में खून का घुट पी-पीकर रह जाती हूँ। देवप्रकाश-वेदया है । कल से इसका नाम कटवा दूंगा। भीख माँगनी है तो भीख ही मोंगे। दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब १६ साल की हो गयी थी। इतनी बातें सुनने के बाद अब उसे उस घर में रहना असह्य हो गया। जब हाथ-पाँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्त्सना सब कुछ सहकर घर में रहता था। अब हाथ-पाँव हो गये थे, उस बंधन में क्यों रहता। आत्माभिमान श्राशा की भाँति बहुत चिरजीवी होता है। गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय । घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती दगल में दवाई; छोटा-सा वेग हाथ में लिया और चाहता था कि चुपके से बैठक से निकल जायँ कि शान आ गया और उसे कहीं जाने को तैयार देखकर बोला-कहाँ जाते हो भैया ? सत्य-जाता हूँ, कहीं नौकरी करूँगा। शान् --मैं जाकर अम्मा से कहे देता हूँ । सत्य--तो फिर मैं तुमसे दिवाकर चला जाऊँगा । जानू -क्यों चले जाओगे ? तुम्हें मेरी जरा भी मुहन्वत नहीं है? सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा--तुम्हें छोड़कर जाने को जी तो
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