पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१७१

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१८२ मानसरोवर निश्चय किया कि एक अच्छी सी घड़ी मेजूं। उसका दाम कम-से कम ४०) होगा। अगर तीन महीने तक एक कौड़ी का भी अपव्यय न करूँ, तो घड़ी मिल सकती है । ज्ञानू घड़ी देखकर कैसा खुश होगा! अम्माँ और बाबूजी भी देखेंगे। उन्हें मालूम हो जायगा कि मैं भूखों नहीं मर रहा हूँ। किफायत की धुन में वह बहुधा दिया-बत्ती भी न करता । बड़े सवेरे काम करने चला जाता और सारे दिन दो-चार पैसे की मिठाई खाकर काम करता रहता । उसके ग्राहकों की संख्या दिन-दूनी होती जाती थी। चिट्ठी-पत्री के अतिरिक्त अब उसने तार लिखने का भी अभ्यास कर लिया था। दो ही महीने में उसके पास ५०) एकत्र हो गये और जब घड़ी के साथ सुनहरी चेन का पारसल बनाकर शानू के नाम मेज दिया, तो उसका चित्त इतना उत्साहित था मानो किसी निस्सन्तान पुरुष के बालक हुश्रा हो । 'घर' कितनी कोमल, पवित्र, मनोहर स्मृतियों को जागृत कर देता है ! यह प्रेम का निवास स्थान है । प्रेम ने बहुत तपस्या करके यह वरदान पाया है। किशोरावस्था में 'घर' माता-पिता, भाई-बहिन, सखी सहेली के प्रेम की याद दिलाता है, प्रौढ़ावस्था में गृहिणी और बाल बच्चों के प्रेम की। यही वह लहर है, जो मानव-जीवन मात्र को स्थिर रखता है, उसे समुद्र की वेगवती लहरों में बहने और चट्टानों से टकराने से बचाता है। यही वह मडप है, जो जीवन को समस्त विघ्न-वाधाओं से सुरक्षित रखता है। सत्यप्रकाश का 'घर कहाँ था ? वह कौन-सी शक्ति थी, जो कलकत्ते के विराट् प्रलोभनों से उसकी रक्षा करती थी ?--माता का प्रेम, पिता का स्नेह, बाल बच्चों की चिन्ता ?-नहीं, उसका रक्षक, उद्धारक, उसका परितोषिक केवल ज्ञानप्रकाश का स्नेह था। उसी के निमित्त वह एक-एक पैसे की किफायत करता था, उसी के लिए वह कठिन परिश्रम करता था और धनोपार्जन के नये- नये उपाय सोचता था । उसे ज्ञानप्रकाश के पत्रों से मालूम हुआ था कि इन दिनों देवप्रकाश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। वे एक घर बनवा रहे हैं, जिसमें व्यय अनुमान से अधिक हो जाने के कारण ऋण लेना पड़ा है, इसलिए अब ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए घर पर मास्टर नहीं आता । तबसे