रह-दाह
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सत्यप्रकाश प्रतिमास जानू के पास कुछ न कुछ अवश्य मेज देता था। वह
श्रय केवल पत्रलेखक न था, लिखने के सामान की एक छोटी-सी दूकान भी
उसने खोल ली थी। इससे अच्छी नामदनी हो जाती थी। इसी तरह पाँच
वर्ष बीत गये । रसिक मित्रों ने जब देखा कि अब यह हत्थे नहीं चढ़ता, तो
उसके पास आना-जाना छोड़ दिया ।
(६)
सन्ध्या का समय था। देवप्रकाश अपने मकान में बैठे देवप्रिया से
शानप्रकाश के विवाह के सम्बन्ध में बात कर रहे थे। जानू अब १७ वर्ष का
सुन्दर युवक था । बालविवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस
शुभमुहूर्त को न टाल सकते थे । विशेषतः जब कोई महाशय ५,०००) दायज
देने को प्रस्तुत हों।
देवप्रकाश-मैं तो तैयार हूँ, लेकिन तुम्हारा लड़का भी तो तैयार हो !
देवप्रिया-तुम बातचीत पकी कर लो, वह तैयार हो ही जायगा । सभी
ल्दके पदिले 'नहीं करते हैं।
देवः -शानू का इन्कार केवल संकोच का इन्कार नहीं है, वह सिद्धान्त
का इन्कार है । वह साफ़ साफ कह रहा है कि जब तक भैया का विवाह न
होगा, मैं अपना विवाह करने पर राजी नहीं हूँ।
देवप्रिया-उसकी कौन चलावे, वहाँ कोई रखेली रख ली होगी, विवाह
क्यों करेगा ? वहाँ कोई देखने जाता है !
देव-(मलाकर ) रसेली रख ली होती तो तुम्हारे लड़के को ४०)
महीने न भेजता और न ये चीजें ही देता, जो पहिले महीने से अब तक
बराबर देता चला पाता है । न जाने क्यों तुम्हारा मन उसकी और से इतना
मैला हो गया है ! चाहे वह जान निकालकर भी दे दे, लेकिन तुम न
पसीजोगी!
देवप्रिया नाराज होकर चली गयी । देवप्रकाश उससे यही कहलाया चाहते
ये फि पहिले सत्यप्रकाश का विवाह करना उचित है; विन्तु वह कभी इस प्रसग
को आने दी न देती थी। लय देवप्रकाश की यह हार्दिक इच्छा थी कि पहले
यो लापे का विवाए फरें, पर उन्होंने भी अाज तक सत्यप्रकाश को कोई पत्र
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१७२
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