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मानसरोवर
मुँह में कालिख लगा दी है । ऐसा देव-पुरुष आप लोगों
कारण विदेश में
ठोकर खा रहा है और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि
देवप्रिया-अच्छा चुप रह, नहीं व्याह करना है, न कर, जले पर लोन मत
छिड़क ! माता पिता का धर्म है, इसलिए कहती हूँ, नहीं तो यहाँ ठेंगे की परवा
नहीं है । तू चाहे व्याह कर, चाहे क्वाँरा रह, पर मेरी आँखों से दूर हो जा।
ज्ञान०-मेरी सूरत से घृणा हो गयी ?
देवप्रिया-जब तू हमारे कहने ही में नहीं, तो जहाँ चाहे, रह । हम भी
समझ लेंगे कि भगवान ने लड़का ही नहीं दिया ।
देव०-क्यों व्यर्थ में ऐसे कटुवचन बोलती हो ?
जान०--अगर आप लोगों की यही इच्छा है, तो यही होगा। देवप्रकाश
ने देखा कि बात का बतगढ़ हुआ चाहता है, तो ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल
दिया और पत्नी के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा करने लगे। मगर देवप्रिया
फूट फूटकर रो रही थी और बार बार कहती थी, मैं इसकी सूरत न देखूगी।
अन्त में देवप्रकाश ने चिढ़कर कहा-तो तुम्ही ने तो कटुवचन कहकर उसे
उत्तेजित कर दिया।
देवप्रिया-~यह सब विष उसी चाण्डाल ने बोया है, जो यहाँ से सात समुद्र-
पार बैठा हुआ मुझे मिट्टी में मिलाने का उपाय कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे
छीनने ही के लिए उसने यह प्रेम का स्वॉग भरा है। मैं उसकी नस-नस
पहचानती हूँ। उसका यह मन्त्र मेरी जान लेकर छोड़ेगा , नहीं तो मेरा ज्ञान
जिसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया, यो मुझे न जलाता !
देव०-अरे, तो क्या वह विवाह ही न करेगा ! अभी गुस्से में अनाप-
सनाप बक गया है। जरा शान्त हो जायगा तो मैं समझाकर राजी कर दूंगा।
देवप्रिया-मेरे हाथ से निकल गया ।
देवप्रिया की आशका सत्य निकली। देवप्रकाश ने बेटे को बहुत समझाया,
कहा-तुम्हारी माता इस शोक में मर जायगी, किन्तु कुछ असर न हुआ ।
उसने एक बार 'नहीं' करके 'हो' न की। निदान पिता भी निराश होकर बैठ रहे।
तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों में यह प्रश्न उठता रहा, पर ज्ञान-
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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१७३
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