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मानसरोवर
पण्डित देवदत्त के पूर्वजों का कारोबार बहुत विस्तृत था। वे लेनदेन
किया करते थे । अधिकतर उनके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ों के
साथ थे। उस समय ईमान इतना सस्ता नहीं बिकता था । सादे पत्रों पर लाखों
की बातें हो जाती थीं। मगर सन् ५७ ई० के बलवे ने कितनी ही रियासतों
और राज्यों को मिटा दिया और उनके साय तिवारियों का यह अन्न-धन पूर्ण
परिवार भी मिट्टी में मिल गया । खजाना लुट गया, बही खाते पसारियों के
काम आये । जब कुछ शान्ति हुई, रियासतें फिर सँभली तो समय पलट चुका
था । वचन लेख के अधीन हो रहा था, तथा लेख में भी सादे और रगोन का
मेद होने लगा था।
जब देवदत्त ने होश संभाला तब उनके पास इस खडहर के अतिरिक्त और
कोई सम्पत्ति न थी। अब निर्वाह के लिए कोई उपाय न था। कृषि में परिश्रम
और कष्ट था । वाणिज्य के लिए धन और बुद्धि की आवश्यकता थी। विद्या
भी ऐसी नहीं थी कि कहीं नौकरी करते, परिवार की प्रतिष्ठा दान लेने में बाधक
थी। अस्तु, साल में दो-तीन बार अपने पुराने व्यवहारियों के घर बिना बुलाये
पाहुनों की भांति जाते और जो कुछ बिदाई तथा मार्ग-व्यय पाते उसी पर
गुनारा करते । पैतृक प्रतिष्ठा का चिह्न यदि कुछ शेष था, तो वह पुरानी चिट्टी-
पत्रियों का ढेर तथा हुँडियों का पुलिन्दा, जिनकी स्याही भी उनके मन्द भाग्य
की भाँति फीकी पड़ गयी थी। पण्डित देवदत्त उन्हें प्राण से भी अधिक प्रिय
समझते । द्वितीया के दिन जब घर-घर लक्ष्मी की पूजा होती है, पण्डितजी ठाट-
वाट से इन पुलिन्दों की पूजा करते । लक्ष्मी न सही, लक्ष्मी-स्मारक चिह्न ही
सही । दूज का दिन पण्डितजी की प्रतिष्ठा के श्राद्ध का दिन था। इसे चाहे
विडम्बना कहो, चाहे मूर्खता, परन्तु श्रीमान् पण्डित महाशय को उन पत्रों पर
बड़ा अमिमान था । जब गाँव में कोई विवाह छिड़ जाता तो यह सड़े गले
कागजों की सेना ही बहुत काम कर जाती और प्रतिवादी शत्रु को हार माननी
पड़ती। यदि सत्तर पीढियों से शस्त्र की सूरत न देखने पर भी लोग क्षत्रिय होने
का अभिमान करते हैं, तो परिडत देवदत्त का उन लेखों पर अभिमान करना
अनुचित नहीं कहा जा सकता, जिसमें सत्तर लाख रुपयों की रकम छिपी
हुई थी।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१९१
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