२१४ मानसरोवर शब्द वायु और अन्धकार को चीरते हुए कान में आने लगे। उनकी सुहावनी ध्वनि इस नि स्तब्ध अवस्था में अत्यन्त मली प्रतीत होती थी। यह शब्द समीप हो गये और अन्त में पण्डित देवदत्त के समीप आकर उनके खंडहर में डूब गये । पण्डितजी उस समय निराशा के अथाह समुद्र में गोते खा रहे थे । शोक में इस योग्य मा नहीं थे कि प्राणों से अधिक प्यारी गिरिजा की दवा- दरपन कर सकें । क्या करें ? इस निष्ठुर वैद्य को यहाँ कैसे लायें ?–जालिम,मैं सारी उमर तेरी गुलामी करता । तेरे इश्तहार छापता । तेरी दवाइयों कूटता । श्राज पण्डितजी को यह ज्ञात हुआ कि सत्तर लाख की चिट्ठी पत्रियों इतनी कौड़ियों के मोल भी नहीं । पैतृक प्रतिष्ठा का अहकार अब आँखों से दूर हो गया। उन्होंने उस मखमली थैले को सन्दूक से बाहर निकाला और उन चिट्ठी- पत्रियों को, जो बाप-दादों की कमाई का शेषाश थी और प्रतिष्ठा की भाँति जिनकी रक्षा की जाती थी, एक एक करके दीया को अर्पण करने लगे। जिस तरह सुख और आनन्द से पालित शरीर चिता की भेंट हो जाता है, उसी प्रकार वह कागजी पुतलियाँ भी उस प्रज्वलित दीया के धधकते हुए मुँह का ग्रास बनती थीं। इतने में किसी ने बाहर से पण्डितजी को पुकारा । उन्होंने चौंककर सिर उठाया। वे नींद से, अँधेरे में टटोलते हुए दरवाजे तक आये । देखा कि कई श्रादमी हाथ में खड़े हैं और एक हाथी अपने सूंड से उन एरण्ड के वृक्षों को उखाड़ रहा है, जो द्वार पर द्वारपालों की माँति खड़े थे। हाथी पर एक सुन्दर युवक बैठा है जिसके सिर पर केसरिया रङ्गकी रेशमी पाग है । माथे पर अर्धचद्राकार चदन, भाले की तरह तनी हुई नोकदार मूंछे, मुखारविन्द से प्रभाव और प्रकाश टपकता हुश्रा, कोई सरदार मालूम पड़ता था। उसका कलीदार अँगरखा और चुनावदार पैजामा, कमर में लटकती हुई तलवार और गर्दन में सुनहरे कठे और जंजीर उसके सजीले शरीर पर अत्यन्त शोमा पा रहे थे । पण्डितजी को देखते ही उसने रकाब पर पैर रखा और नीचे उतरकर उनकी वन्दना की। उसके इस विनीत भाव से कुछ लज्जित होकर पण्डितजी बोले- आपका आगमन कहाँ से हुश्रा ! नवयुवक ने बड़े नम्र शन्दों में जवाब दिया । उसके चेहरे से भलमनसाहत वरसती थी-मैं श्रापका पुराना सेवक हूँ। दास का घर राजनगर है । मैं वहाँ मशाल लिये
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