सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१८ मानसरोवर मुझे गिरिजा की आवश्यकता है, रुपयों की आवश्यकता नहीं। यह सौदा बड़ा मॅहगा है। अमावास्या की अँधेरी रात गिरिजा के अन्धकारमय जीवन की माति समाप्त हो चुकी थी । खेतों में हल चलानेवाले किसान ऊँचे और सुहावने स्वर से गा रहे थे । सर्दी से काँपते हुए बच्चे सूर्य-देवता से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहे थे । पनघट पर गाँव की अलवेली स्त्रियों जमा हो गई थीं। पानी भरने के लिए नहीं ; हँसने के लिए | कोई घड़े को कुएँ में डाले हुए अपनी पोपली सास की नकल कर रही थी, कोई खम्भों से चिपटी हुई अपनी सहेली से मुसकराकर प्रेमरहस्य की बातें करती थीं। बृदी स्त्रियाँ पोतों को गोद में लिये अपनी बहुओं को कोस रही थीं कि घटे-भर हुए अब तक कुएँ से नहीं लौटीं । किन्तु राजवैद्य लाला शकरदास अभी तक मीठी नींद ले रहे थे। खॉसते हुए बच्चे और कराहते हुए बूढे उनके औषधालय के द्वार जमा हो चले थे। इस भीड़-भन्भड़ से कुछ दूर पर दो तीन सुन्दर किंतु मुआये हुए नवयुवक टहल रहे थे और वैद्यजी से एकान्त में कुछ बातें किया चाहते थे। इतने में पण्डित देवदत्त नगे सिर, नगे बदन, लाल आँखें, डरावनी सूरत, कागज़ का एक पुलिंदा लिये दौड़ते हुए पाये और औषधाल्य के द्वार पर इतने जोर से हाँक लगाने लगे कि वैद्यजी चौंक पड़े और कहार को पुकारकर बोले कि दरवाज़ा खोल दे । कहार महात्मा बड़ी रात गये किसी बिरादरी की पंचायत से लौटे । उन्हें दीर्घ निद्रा का रोग था जो वैद्यजी के लगातार भाषण और फटकार की औषधियों से भी कम न होता था । श्राप ऐंठते हुए उठे और किवाड़ खोलकर हुक्का-चिळम की चिन्ता में आग ढूँढने चले गये । हकीमजी उठने की चेष्टा कर रहे थे कि सहसा देवदत्त उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गये और नोटों का पुलिन्दा उनके आगे पटककर बोले-वैद्यजी, ये पचहत्तर हजार के नोट हैं । यह आपका पुरस्कार और आपकी फ़ीस है। आप चलकर गिरिजा को देख लीजिए और ऐसा कुछ कीजिए कि वह केवल एक बार आँखें खोल दे । यह उसकी एक दृष्टि पर न्योछावर है- केवल एक दृष्टि पर। आपको