राजा हरदौल २३
में तलवार देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौल से कोई अपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है ? मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है ? केवल थालों के बदल जाने से ? हे ईश्वर ! मैं किससे अपना दुःख कहूँ ? तू ही मेरा साक्षी है। जो चाहे सो हो; पर मुझसे यह पाप न होगा।
रानी ने फिर सोचा-राजा, क्या तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है ? तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो ? यदि तुमसे उसका अधिकार और मान नहीं देखा जाता तो क्यों साफ साफ ऐसा नहीं कहते ? क्यों मरदों की लड़ाई नहीं लड़ते ? क्यों स्वय अपने हाथ से उसका सिर नहीं काटते और मुझसे वह काम करने को कहते हो ? तुम खूब जानते हो, मैं नहीं कर सकती। यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया है, यदि मै तुम्हारी जान की जंजाल हो गयी है, तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊँगी; पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना बड़ा कलक न लगने दो । पर मैं जीवित ही क्यों रहूँ ? मेरे लिए अब जीवन में कोई सुख नहीं है । अब मेरा मरना ही अच्छा है । मैं स्वयं प्राण दे दूँगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा । विचारों ने फिर पलटा खाया । तुमको पाप करना ही होगा। इससे बड़ा पाप शायद आज तक संसार में न हुआ हो; पर यह पाप तुमको करना होगा। तुम्हारे पतिव्रत पर सन्देह किया जा रहा है और तुम्हे इस सन्देह को मिटाना होगा। यदि तुम्हारी जान जोखिम में होती, तो कुछ हर्ज न था, अपनी जान देकर हरदौल को बचा लेती; पर इस समय तुम्हारे पतिव्रत पर आँच पा रही है। इसलिए तुम्हें यह पाप करना ही होगा, और पाप करने के बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा। यदि तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि तुम्हारा मुख ही जरा भी मद्धिम हुआ, तो इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम सन्देह मिटाने में सफल न होगी । तुम्हारे जी पर चाहे जो बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा । परन्तु कैसे होगा ? क्या मैं हरदौल का सिर उतारूँगी? यह सोचकर रानी के शरीर में कॅपकँपी आ गयी । नहीं, मेरा हाथ-पैर कभी नहीं उठ सकता | प्यारे हरदौल, मैं तुम्हें खिला सकती । मैं जानती हूँ, तुम मेरे लिए आनन्द से विष का बीड़ा खा लोगे। हाँ जानती हूँ, तुम 'नहीं' न करोगे; पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता । एक बार नहीं, हज़ार बार नहीं हो सकता।