पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२११

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२३६ मानसरोवर न्यायाधीश-रसीदें क्यों नहीं दीं। दुर्गानाथ–मेरे मालिक की आज्ञा । ( ६ ) मैजिस्ट्रेट ने नालिशें डिसमिस कर दी। कुँवर साहब को ज्यों ही इस परा- जय की खबर मिली, उनके कोप की मात्रा सीमा से बाहर हो गई। उन्होंने पण्डित दुर्गानाथ को सैकड़ों कुवाक्य कहे-नमकहराम, विश्वासघाती, दुष्ट । मैंने उसका कितना आदर किया, किन्तु कुत्ते की पूँछ कहीं सीधी हो सकती है ! अन्त में विश्वासघात कर ही गया। यह अच्छा हुआ कि प० दुर्गानाथ मैजिस्ट्रेट का फैसला सुनते ही मुख्तारआम को कुजियों और कागजपत्र सुपुर्द कर चलते हुए । नहीं तो उन्हें इस कार्य के फल में कुछ दिन हल्दी और गुड़ पीने की श्रावश्यकता पड़ती। कुँवर साहब का लेन-देन विशेष अधिक था । चौदपार बहुत बड़ा इलाका था। वहाँ के असामियों पर कई सौ रुपये बाकी थे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब रुपया डूब जायगा । वसूल होने की कोई आशा नहीं। इस पण्डित ने असामियों को बिलकुल बिगाड़ दिया। अब उन्हें मेरा क्या डर १ अपने कारिन्दों और मन्त्रियों से सम्मति ली। उन्होंने भी यही कहा-अब वसूल होने की कोई सूरत नहीं। कागजात न्यायालय में पेश किये जायें तो इनका टैक्स लग जायगा। किन्तु रुपया वसूल होना कठिन है। उजरदारियाँ होंगी। कहीं हिसाब में कोई मूल निकल आई तो रही-सही साख भी जाती रहेगी और दूसरे इलाकों का रुपया भी मारा जायगा । दूसरे दिन कुँवर साहब पूजा-पाठ से निश्चित हो अपने चौपाल में बैठे, तो क्या देखते हैं कि चाँदपार के असामी झुएड के-मुण्ड चले आ रहे हैं। उन्हें यह देखकर भय हुआ कि कहीं ये सब कुछ उपद्रव तो न करेंगे, किन्तु किसी के हाथ में एक छड़ी तक न थी। मलूका आगे-आगे आता था। उसने दूर ही से झुककर वन्दना की। ठाकुर साहब को ऐसा आश्चर्य हुआ, मानों वे कोई स्वप्न देख रहे हों। ( ७ ) मलूका ने सामने आकर विनयपूर्वक कहा-सरकार, हम लोगों से जो 3