पछतावा २२६ . 'परिवर्तन हुआ। द्वार पर कभी-कभी साधु-सन्त धूनी रमाये हुए देख पढ़ते। स्वय भगवद्गीता और विष्णुपुराण पढ़ते । पारलौकिक चिन्ता अब नित्य रहने लगी। परमात्मा की कृपा और साधु मन्तों के आशीर्वाद से बुढ़ापे में उनको एक लड़का पैदा हुश्रा । जीवन की प्राशायें सफल हुई; पर दुर्भाग्यवश पुत्र जन्म ही से कुँवर साहव शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगे। सदा वैद्यों और डाक्टरों का तांता लगा रहता था; लेकिन दवाओं का उलटा प्रभाव पढ़ता। ज्यों त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताये। अन्त में उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। उन्हें मालूम हो गया कि अब संसार से नाता टूट जायगा। अब चिन्ता ने और धर दबाया-यह सारा माल-असबाय, इतनी बड़ी सम्पत्ति किस पर छोड़ जाऊँ ? मन की इच्छायें मन ही में रह गयो । लड़के का विवाह भी न देख सका । उसकी तोतली बातें सुनने का भी सौभाग्य न हुआ। हाय, अब इस कलेजे के टुकड़े को किसे सौंयूँ , जो इसे अपना पुत्र समझे । लड़क की माँ स्त्री-जाति, न कुछ जाने, न समझे। उससे कारवार सँभलना कठिन है। मुख्ताराम, गुमाश्ते, कारिन्दे कितने हैं, परन्तु सब के-सब स्वार्थी- विश्वासघाती । एक भी ऐसा पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास जमे! कोर्ट श्रॉफ वा के सुपुर्द करूँ तो वहाँ भी वे ही सब आपत्तियों। कोई इधर दवायेगा, कोई उधर । अनाथ बालक को कौन पूछेगा ? हाय, मैने श्रादमी नहा पहचाना! मुझे हीरा मिल गया था, मैंने उसे ठीकरा समझा! कैसा सञ्चा, कैसा वीर, दप्रतिश पुरुष था! यदि वह कहीं मिल जाये तो इस अनाथ बालक के दिन फिर जायें । उसके हृदय में करुणा है, दया है। वह अनाथ बालक पर तरस खायगा । हा! क्या उसके दर्शन मिलेंगे ? मैं उस देवता के चरण धोकर माथे पर चढ़ाता । आँसुओं से उसके चरण धोता । वही यदि हाथ लगाये तो यह मेरी डूबती नाव पार लगे। (६) ठाकुर साहब की दशा दिन पर दिन बिगड़ती गई। अब अन्तकाल श्रा पहुँचा । उन्हें पण्डित दुर्गानाथ की रट लगी हुई थी। बच्चे का मुंह देखते और कलेजे से एक श्राह निकल जाती। बार-बार पछताते और हाथ मलते । हाय ! उस देवता का कहाँ पाऊँ ? जो कोई उसके दर्शन करा दे. श्राधी
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