-२३८ मानसरोवर यह सब कुछ सहन किया, परन्तु पण्डितजी की बात न टाली। कुँवर साहब के मन में पण्डितजी के प्रति जो बुरे विचार थे, सब मिट गये । उन्होंने सदा से कठोरता से काम लेना सीखा था। उन्हीं नियमों पर वे चलते थे । न्याय तथा सत्यता पर उनका विश्वास न था। किन्तु आज उन्हें प्रत्यक्ष देख पड़ा कि सत्यता और कोमलता में बहुत बड़ी शक्ति है । ये असामी मेरे हाथ से निकल गये थे । मैं इनका क्या बिगाड़ सकता या ! अवश्य वह पण्डित सच्चा और धर्मात्मा पुरुष था। उसमें दूरदर्शिता न हो, काल-ज्ञान न हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह निःस्पृह और सच्चा पुरुष था । (5) कैसी ही अच्छी वस्तु क्यों न हो, जब तक हमको उसकी आवश्यकता नहीं होती तब तक हमारी दृष्टि में उसका गौरव नहीं होता। हरी दूब भी किसी समय अशर्फियों के मोल बिक जाती है । कुँवर साहब का काम एक निःस्पृह मनुष्य के बिना रुक नहीं सकता था। श्रतएव पण्डितजी के इस सर्वोत्तम कार्य की प्रशसा किसी कवि की कविता से अधिक न हुई। चॉदपार के असामियों ने तो अपने मालिक को कभी किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाया, किन्तु अन्य इलाकोवाले असामी उसी पुराने ढग से चलते थे । उन इलाकों में रगड़-झगड़ सदैव मची रहती थी। अदालत, मार पीट, डॉट-डपट सदा लगी रहती थी। किन्तु ये सब तो जमींदार के शृगार हैं । बिना इन सब बातों के जमींदारी कैसी ? क्या दिन भर बैठे बैठे मक्खियाँ मारें ? कुँवर साहब इसी प्रकार पुराने ढग से अपना प्रवध सँभालते जाते थे । कई वर्ष व्यतीत हो गये । कुँवर साहब का कारोबार दिनों-दिन चमकता ही गया, यद्यपि उन्होने पाँच लड़कियों के विवाह बड़ी धूम धाम के साथ किये, परन्तु तिस पर भी उनकी बढ़ती में किसी प्रकार की कमी न हुई । हाँ, शारीरिक शक्तियों अवश्य कुछ-कुछ ढीली पड़ती गयीं। बड़ी भारी चिन्ता यही थी कि इतनी बड़ी सम्पत्ति और ऐश्वर्य का भोगनेवाला कोई उत्पन्न न हुआ । भानजे, भतीजे और नवासे इस रियासत पर दाँत लगाये हुए थे। कुँवर साहब का मन अब इन सासारिक झगड़ों से फिरता जाता था। आखिर यह रोना-धोना किसके लिए ? अब उनके जीवन-नियम में एक
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