पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२१६

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आप-चीती प्रायः अधिकाश साहित्य सेवियों के जीवन में एक ऐसा समय आता है, जब पाठकगण उनके पास श्रद्धा पूर्ण पत्र भेजने लगते हैं। कोई उनकी रचना- शैली की प्रशंसा करता है, कोई उनके सद् विचारों पर मुग्ध हो जाता है। लेखक को भी कुछ दिनों से यह सौभाग्य प्राप्त है । ऐमे पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना गद्गद् हो जाता है, इसे किसी साहित्य सेवी ही से पूछना चाहिए। अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह गर्व और आत्मगौरव की लहरों में डूब जाता है। भूल जाता है कि रात को गोली लकड़ी से भोजन पकाने के कारण सिर में कितना दर्द हो रहा था, खटमलों और मच्छड़ों ने रात-भर कैसे नींद हराम फर दी यो । 'मैं भी कुछ हूँ' यह अहंकार उसे एक क्षण लिए उन्मत्त बना देता है। पिछले साल, सावन के महीने में मुझे एक ऐसा ही पत्र मिला । उसमें मेरी क्षुद्र रचनाओं की दिल खोलकर दाद दी गयी थी। पत्र प्रेपक महोदय स्वयं एक अच्छे कवि थे। मैं उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में अक्सर देखा करता था। यह पत्र पढकर फूला न समाया। उसी वक्त जवाब लिखने वैटा । उस तरग में जो कुछ लिख गया, इस समय याद नहीं । इतना ज़रूर याद है कि पत्र श्रादि से अंत तक प्रेम के उद्गारों से भरा हुआ था। मैंने कभी कविता नहीं की और न कोई गद्य काव्य ही लिखा ; पर भाषा को जितना संवार सकता था, उतना संवारा । यहाँ तक कि जब पत्र समाप्त करके दुबारा पढ़ा तो कविता का आनंद आया । साग पत्र भाव रालित्य से परिपूर्ण था । पाँचवें दिन कवि महोदय का दूसग पत्र आ पहुँना । वह पहले पत्र से भी कहीं अधिक मर्मस्पर्शी था । 'प्यारे भैया !' कहकर मुझे सबोधित किया गया था; मेरी रचनाओं की सूची और प्रकाशकों के नाम टिकाने पूछे गये थे। अंत में यह शुभ समाचार था कि "मेरी पनीजी को श्रापके ऊपर बड़ी श्रद्धा है । वह बड़े प्रेम से श्रापकी रचनाओं को पढ़ती हैं। वही पूछ रही हैं कि आपका विवाह कहाँ हुआ है। श्रापको सताने कितनी हैं तथा श्रापका