पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२१७

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२४२ मानसरोवर कोई फोटो भी है १ हो तो कृपया मेज दीजिए।" मेरी जन्म-भूमि और वंशावली का पता भी पूछा गया था। इस पत्र, विशेषत उसके अतिम समाचार ने मुझे पुलकित कर दिया। यह पहला ही अवसर था कि मुझे किसी महिला के मुख से, चाहे वह प्रति- निधिद्वारा ही क्यों न हो, अपनी प्रशंसा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । गरूर का नशा छा गया । धन्य है भगवान् ! अब रमणियाँ भी मेरे कृत्य की सराहना करने लगीं ! मैंने तुरंत उत्तर लिखा। जितने कर्णप्रिय शब्द मेरी स्मृति के कोष में थे सब खर्च कर दिये । मैत्री और बंधुत्व से सारा पत्र भरा हुआ था । अपनी वशावली का वर्णन किया । कदाचित् मेरे पूर्वजों का ऐसा कीर्ति-गान किसी भाट ने भी न किया होगा। मेरे दादा एक जमींदार के कारिंदे थे, मैंने उन्हें एक बड़ी रियासत का मैनेजर बतलाया। अपने पिता को, जो एक दफ़्तर में क्लर्क थे, उसे दफ़्तर का प्रधानाध्यक्ष बना दिया। और काश्तकारी को जमी- दारी बना देना तो साधारण बात थी। अपनी रचनाओं की संख्या तो न बढ़ा सका, पर उनके महत्व, श्रादर और प्रचार का उल्लेख ऐसे शब्दों में किया, जो नम्रता की श्रोट में अपने गर्व को छिपाते हैं । कौन नहीं जानता कि बहुधा 'तुच्छ' का अर्थ उसे विपरीत होता है, और 'दीन' के माने कुछ और ही समझे जाते हैं । स्पष्ट से अपनी बड़ाई करना उच्छृङ्खलता है , मगर साकेतिक शब्दों से आप इसी काम को बड़ी आसानी से पूरा कर सकते हैं । खैर, मेरा पत्र समाप्त हो गया और तत्क्षण लेटरबक्स के पेट में पहुँच गया । इसके बाद दो सप्ताह तक कोई पत्र न आया। मैंने उस पत्र में अपनी गृहिणी की ओर से भी दो चार समयोचित बातें लिख दी थीं। आशा थी, घनिष्ठता और भी घनिष्ठ होगी | कही कविता में मेरी प्रशसा हो जाय, पूछना ! फिर तो साहित्य ससार में मैं-ही-मैं नज़र आऊँ। इस चुप्पी से कुछ निराशा होने लगी , लेकिन इस डर से कि कहीं कविजी मुझे मतलबी अथवा : Sentimental न समझ लें, कोई पत्र न लिख सका। आश्विन का महीना था, और तीसरा पहर । रामलीला की धूम मची हुई थी। मैं अपने एक मित्र के घर चला गया था। ताश की बाजी हो रही थी। सहसा एक महाशय मेरा नाम पूछते हुए आये और मेरे पास की कुरसी पर तो क्या