पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२२१

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२४६ मानसरोवर पहर रात गये तक रुपयों का नाम भी नहीं लिया। जब मैं घर में सोने गया, तो बीवी से कहा-इन्होंने तो रुपये नहीं दिये जी ! पत्नी ने व्यग्य से हँसकर कहा-तो क्या सचमुच तुम्हें श्राशा थी कि वह आते ही आते तुम्हारे हाथ में रुपये रख देंगे ? मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया था कि फिर पाने की आशा से रुपये मत दो , यही समझ लो कि किसी मित्र को, सहायतार्थ दे दिये । लेकिन तुम भी विचित्र आदमी हो । मैं लजित और चुप हो रहा । उमापतिजी दो दिन रहे। मेरी पत्नी उनका यथोचित आदर-सत्कार करती रहीं। लेकिन मुझे उतना सतोष न था। मैं , समझता था, इन्होंने मुझे धोखा दिया । तीसरे दिन प्रातःकाल वह चलने को तैयार हुए। मुझे अब भी आशा यी कि वह रुपये देकर जायेंगे । लेकिन जब उनकी नई रामकहानी सुनी, तो सन्नाटे में आ गया। वह अपना विस्तरा बाँधते हुए बोले-बड़ा ही खेद है कि मैं अबकी बार आपके रुपये न दे सका। बात यह है कि मकान पर पिताजी से भेंट ही नहीं हुई । वह तहसील-वसूल करने गाँव चले गये थे । और मुझे इतना अवकाश न था कि गाँव तक जाता । रेल का रास्ता नहीं है। बैल-गाड़ियों पर आना पड़ता है। इसलिए मैं एक दिन मकान पर रहकर ससुराल चला गया । वहाँ सब रुपये खर्च हो गये। विदाई के रुपये न मिल जाते, तो यहाँ तक आना कठिन था। अब मेरे पास रेल का किराया तक नहीं है । आप मुझे २५) और दे दें। मैं वहाँ जाते ही मेज दूंगा। मेरे पास इक्के तक का किराया 1 । नहीं है। जी में तो आया कि टका-सा जवाब दे दूं, पर इतनी अशिष्टता न हो सकी। फिर पत्नी के पास गया और रुपये माँगे । अब उन्होने बिना कुछ कहे-सुने रुपये निकालकर मेरे हवाले कर दिये । मैंने उदासीन भाव से रुपये उमापतिजी को दे दिये । जब उनकी पुत्री और अर्धागिनी जीने से उतर गई , तो उन्होंने बिस्तर उठाया और मुझे प्रणाम किया । मैने बैठे-बैठे सिर हिलाकर जवाब दिया। उन्हें सड़क तक पहुँचाने भी न गया । एक सप्ताह के बाद उमापतिजी ने लिखा-मैं कार्यवश बराबर जा रहा हूँ । लौटकर रुपये मेजूंगा।