श्राप-बीती २४५ संदेह में पड़ा हुआ हूँ। घर में आकर पनो से कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपये तो नहीं हैं ! स्त्री-क्या करोगे? मैं-मेरे मित्र जो कल आये हैं, उनके रुपये किसी ने गाड़ी में चुरा लिये । उन्हें बीवी को बिदा कराने ससुराल जाना है । लौटती बार देते जायेंगे। पत्नी ने व्यंग्य करके कहा-तुम्हारे यहाँ जितने मित्र श्राते हैं, सब तुम्हें ठगने ही आते है, सभी सकट में पड़े रहते हैं। मेरे पास रुपये नहीं हैं। मैंने खुशामद करते हुए कहा-लामो दे दो। बेचारे तैयार खड़े हैं। गाड़ी छूट जायगी। सा- कह दो, इस समय घर में रुपये नहीं हैं। मैं -यह कद देना आसान नहीं है। इसका अर्थ यह है कि मैं दरिद्र ही नहीं, मित्र-हीन भी हूँ ; नहीं तो क्या मेरे किये ५०) का भी इंतिजाम न हो सकता । उमापति को कभी विश्वास न आयेगा कि मेरे पास रुपये नहीं हैं। इससे तो कहीं अच्छा हो कि साफ़-साफ यह कह दिया जाय कि 'हमको श्राप पर भरोसा नहीं है, हम आपको रुपये नहीं दे सकते।' कम-से-कम अपना पर्दा तो ढंका रह जायगा। श्रीमती ने हुँझलाकर संदूक की कुली मेरे पागे फेंक दी और कहा-तुम्हें जितना बहस करना आता है, उतना कहीं आदमियों को परखना आता, तो अब तक श्रादमी हो गये होते ! ले जाओ, दे दो। किसी तरह तुम्हारी मरजाद तो बनी रहे । लेकिन उधार समझकर मत दा, यह समझ लो कि पानी में फेंक मुझे श्राम खाने से काम था, पेड़ गिनने से नहीं । चुपके से रुपये निकाले और लाकर उमापति को दे दिये। फिर लौटती बार ग्राफर रुपये दे जाने का आश्वासन देकर चल दिये। सातवें दिन शाम को वह घर से लौट आये। उनकी पकी और पुत्री भी साय थी। मेरी पनी ने शफर और दही खिलाकर उनका स्वागत किया। मुँह- दिखाई के २) दिये। उनकी पुत्री को भी मिठाई खाने को २) दिये। मैंने समझा था, उमापति आते ही याते मेरे रुपये गिनने लगेंगे लेकिन उन्होंने
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