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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२३८

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राज्य-भक्त इसरत का दाग बनकर रह जायगी । नहों, मुझमें अभी मुल्क की मुहब्बत बाको है । मैं अभी इतना वेजान नहीं हुआ हूँ। मैं इतनी आसानी से सल्तनत को हाथ से न जाने दूँगा, अपने को इतने सस्ते दामों गैरों के हाथों न वेचूंगा, मुल्क की इजत को न मिटने दूंगा, चाहे इस कोशिश में मेरी जान ही क्यों न जाय । कुछ और नहीं कर सकता, तो अपनी जान तो दे हो सकता हूँ। मेरी वेड़ियाँ खोल दो। कप्तान-मैं आपका खादिम हूँ, मगर मुझे यह मजाज़ नहीं है । राजा ( जोश में श्राकर )-जालिम, यह इन बातों का वक्त नहीं है । एक-एक पल हमें तबाही की तरफ़ लिये जा रहा है। खोल दे ये वेड़ियाँ । जिस घर में आग लगी है, उसके श्रादमी खुदा को नहों याद करते, कुएँ की तरफ दौड़ते हैं। कप्तान-यार मेरे मुहसिन हैं। आपके हुक्म से मुँह नहीं मोड़ सकता । लेकिन- राजा-जल्दी करो, जल्दी करो। अपनी तलवार मुझे दे दो। अब इन तकल्लुफ़ की बातों का मौका नहीं है। कप्तान साहब निरुत्तर हो गये। उजीव उत्साह में बड़ी संक्रामक शक्ति होती है । यद्यपि राजा साहब के नाति-पूर्ण वार्तालाप ने उन्हें माकूल नहीं किया, तथापि वह अनिवार्य रूप से उनकी वेड़ियाँ खोलने पर तत्पर हो गये । उसो वक्त जेज़ के दारोगा को बुलाकर कहा-साहब ने हुक्म दिया है कि राजा साहब को फोरन गाजाद कर दिया जाय । इसमें एक पल को भी ताखार ( विलंब ) हुई, तो तुम्हारे हक में अच्छा न होगा। दारोगा को मालूम या कि कतान साइव और मि० "में गादा मैत्री है । अगर साहब नाराज हो जायेंगे, तो रोशनुहोगा की कोई सिफारिश मेरी रक्षा न कर सकेगी। उसने राजा साहब की वेदियों खोऊ दी। गजा माहब जन तलवार दाय में लेकर जेल से निकने, ता उनका हृदय राज्य-भक्ति की तर गों से श्रादोलित हो रहा था। उसी वक्त घड़ियाल ने ११ पजाये।