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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२३९

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२६२ मानसरोवर. आधी रात का समय था। मगर लखनऊ की तग गलियों में खूब चहल- पहल थी। ऐसा मालूम होता था कि अभी ६ वजे होंगे। सराफे में सबसे ज्यादा रौनक यी। मगर आश्चर्य यह था कि किसी दूकान पर जवाहरात या गहने नहीं दिखाई देते थे । केवल आदमियों के आने जाने की भीड़ थी। जिसे देखो, पाँचों शस्त्रों से सुसजित, मूंछे खड़ी किये, ऐंठता हुआ चला आता था । बाजार के मामूली दूकानदार भी निःशस्त्र न थे। सहसा एक आदमी, भारी साफा बांधे, पैर की घुटनियों तक नीची कबा पहने, कमर में पटका बाँधे, आकर एक सराफ की दूकान पर खड़ा हो गया । जान पड़ता था, कोई ईरानी सौदागर है । उन दिनो ईरान के व्यापारी लखनक में बहुत आते जाते थे। इस समय ऐसे यादमी का आ जाना असाधारण बात न थी। सराफ का नाम माधोदास था । बोला-कहिए मीर साहब, कुछ दिखाऊँ । सौदागर-सोने का क्या निर्ख है ? माधो-( सौदागर के कान के पास मुँह ले जाकर ) निर्ख की कुछ न पूछिए । आज करीब एक महीना स बाजार का निर्ख बिगड़ा हुआ है। माल बाजार में आता ही नहीं । लोग दबाये हुए हैं। बाजार मे खौफ के मारे नहीं लाते। अगर आपको ज्यादा माल दरकार हो, तो मेरे साथ गरीबखाने तक तकलीफ कीजिए | जैसा माल चाहिए, लीजिए । निर्ख मुनासिब ही होगा। इसका इतमीनान रखिए। सौदागर-आजकल बाजार का निर्ख क्यों बिगड़ा हुआ है ! माघो-क्या आप हाल ही में वारिद हुए सौदागर-हाँ, मैं आज ही आया हूँ। कहीं पहले की सी रौनक नहीं नज़र आती । कपड़े का बाजार भी सुस्त था । ढाके का एक कीमती थान बहुत तलाश करने पर भी न मिला। माधो-इसके बड़े किस्से हैं, कुछ ऐसा ही मुश्रामला है। सौदागर-डाकुत्रों का जोर तो नहीं है ? पहले तो यहाँ इस किस्म की वारदातें न होती थीं। 1