राज्य-भक्त २६६ 3 | वह जानते थे, बादशाह की ये सदिच्छाएँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हैं। मानवचरित्र में आकस्मिक परिवर्तन बहुत कम हुआ करते हैं। दो-चार महीने में दरवार का फिर वही रग हो जायगा, इसलिए मेरा तटस्थ रहना ही अच्छा है । राज्य के प्रति मेरा जो कुछ कर्तव्य था, वइ मैंने पूरा कर दिया । मै दरबार से अलग रहकर निष्कामभाव से जितनी सेवा कर सकता है, उतनी दरबार में रहकर कदापि नहीं कर सकता। हितैषी मित्र का जितना सम्मान होता है, स्वामिभक्त सेवक का उतना नहीं हो सकता । वह विनीत भाव से बोले-हुजूर, मुझे इस प्रोटे से मुआफ रखें। मैं यो ही अापका खादिम हूँ। इस मसब पर किसी लायक आदमी को मामूर फरमाइए (नियुक्त कीजिए)। मैं अक्खड़ राजपूत हूँ। मुल्की इन्तजाम करना क्या जाने । बादशाह-मुझे तो आपसे ज्यादा लायक और वफादार श्रादमो नजर नहीं आता। मगर राजा साहब उनकी बातों में न आये। आखिर मजबूर होकर बादशाह ने उन्हें ज़्यादा न दवाया। दम-भर बाद जब रोशनुद्दौला को सजा देने का प्रश्न उठा, तब दोनों श्रादमियों में इतना मतभेद हुआ कि वाद-विवाद की नौबत आ गयी । बादशाह आग्रह करते थे कि इसे कुत्तों से नुचवा दिया जाय । गजा साहय इस बात पर अडे हुए थे कि इसे जान से न गरा जाय, केवल नजरबंद कर दिया जाय । अंत में बादशाह ने क्रुद्ध होकर कहा- यह एक दिन श्रापको जरूर दगा देगा! राजा-इस खौफ से मैं इसकी जान न लूँगा । बादशाह---तो जनाब आप चाहें इसे मुआफ कर दें, मैं कभी मुआफ नहीं कर सकता। राजा-आपने तो इसे मेरे सिपुर्द कर दिया था । दी हुई चीज को आप वापस कैसे लेंगे। बादशाह ने कहा-तुमने मेरे निक्लने का कहीं रास्ता दीन रखा। रोशनुद्दौला की जान बच गयी । वजारत का पद क्सान साहब को मिला। मगर सबसे विचित्र वात यह थी कि नेजिडेंट ने इस पट्यन्त्र से पूर्ण अनभिज्ञता प्रकट की और साप लिख दिया कि बादशाह-सलामत अपने अंग्रेज़ मुसाहबों
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