जातिसेवा बड़े अशों तक केवल चन्दे माँगना है। इसके लिए धनिकों की दर्बारदारी या दूसरे शब्दों में खुशामद भी करनी पड़ती थी, दर्शन के उस गौरवयुक्त अध्ययन और इस दानलोलुपता में कितना अतर या ! कहाँ मिल और केंट, स्पेन्सर और किड के साथ एकान्त में बैठे हुए जीव और प्रकृति के गहन-गूढ विषय पर वार्तालाप, और कहाँ इन अभिमानी, असभ्य, मूर्ख व्यापारियों के सामने सिर झुकाना । वह अन्तःकरण में उनसे घृणा करते थे । वह धनी थे और केवल धन कमाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त उनमें और कोई विशेष गुण न था। उनमें अधिकाश ऐसे थे जिन्होंने कपट व्यागर से धनोपार्जन किया था । पर गोपीनाथ के लिए वह सभी पूज्य थे, क्योंकि उन्हीं की कृपादृष्टि पर उनकी राष्ट्र सेवा अवलम्बित थी।
इस प्रकार कई वर्ष व्यतीत हो गये । गोपीनाथ नगर के मान्य पुरुषों में गिने जाने लगे। वह दीनजनों के आधार और दुखियारों के मददगार थे। अब वह बहुत कुछ निर्भीक हो गये थे और कभी कभी रईसों को भी कुमार्ग पर चलते देखकर फटकार दिया करते थे। उनकी तीव्र आलोचना भी अब चन्दे जमा करने में उनकी सहायक हो जाती थी।
अभी तक उनका विवाह न हुअा था । वह पहले ही से ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर चुके थे। विवाह करने से इन्कार किया। मगर जब पिता और अन्य बन्धुजनों ने बहुत आग्रह किया, और उन्होंने स्वय कई विज्ञान ग्रन्थों में देखा कि इन्द्रिय-दमन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो असमसज में पड़े। कई हप्ते सोचते हो गये और वह मन में कोई बात पक्की न कर सके। स्वार्थ और परमार्थ में सघर्ष हो रहा था। बिवाह का अर्थ था अपनी उदारता की हत्या करना, अपने विस्तृत हृदय को सकुचित करना, न कि राष्ट्र के लिए जीना । वह अब इतने ऊँचे आदर्श का त्याग करना निन्द्य और उपहासजनक समझते थे । इसके अतिरिक्त अब वह अनेक कारणों से अपने को पारिवारिक जीवन के अयोग्य पाते थे । जीविका के लिए जिस उद्योगशीलता, जिस अनवरत परिश्नम और जिस मनोवृत्ति की आवश्यकता है, वह उनमें न रही थी। जातिसेवा में भी उद्योगशीलता और अध्यवसाय की कम जरूरत न थी, लेकिन उसमें श्रात्मगौरव का हनन न होता था। परोपकार के लिए भिक्षा माँगना दान है,