पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२५८

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दुराशा २८१ से० -भूत-प्रेत आकर खा गये होंगे। द०-क्या चूल्हा ही नहीं जलाया ? गजब कर दिया । से०-ग़ज़ब मैंने कर दिया या तुमने ? --मैंने तो सब सामान लाकर रख दिया था। तुमसे बार-बार पूछ लिया था कि यदि किसी चीज़ की कमी हो तो बतलाओ। फिर खाना क्यों न पका ? क्या विचित्र रहस्य है ! भला में इन दोनों को क्या मुँह दिखाऊँगा । आo-मित्र, क्या तुम अकेले हो सब सामग्रो चट कर रहे हो? इधर भी लोग आशा लगाये बैठे हैं । इन्तज़ार दम तोड़ रहा है। से यदि सब सामनी लाकर रख ही देते तो मुझे बनाने में क्या आपत्ति थो? द०-छा, दो-एक वस्तुओं की कमी हो रह गई थी, तो इसका क्या अभिप्राय कि चूल्हा ही न जले ? यह तो किसी अपराध का दण्ड दिया है। आज होली का दिन और यहाँ श्राग ही न जली ? से०-जब तक ऐसे चरके न खाओगे- तुम्हारी आँखें न खुलेंगी। द०-तुम तो पहेलियों से बातें कर रही हो । आखिर किस बात पर प्रप्रसन्न हो ? मैंने कौन-सा अपराध किया है ? जब मैं यहाँ से जाने लगा था, तुम प्रसन्नमुख थी और इसके पहले भी मैंने तुम्हें दुखी नहीं देखा था। ता मेरी अनुपस्थिति में कौन ऐसी बात हो गयी कि तुम इतनी रूठ गयी ? to-घर में स्त्रियों को कैद करने का यह दण्ड है। द०--अच्छा, तो यह इस अपराध का दण्ड है ? मगर तुमने मुझसे परदे को निन्दा नहीं की। बल्कि इस विषय पर जब कोई बात छिड़ती थी तो तुम मेरे विचारों ने सहमन हो रहती थों । मुझे अाज हो ज्ञात हुआ है कि तुम्हें परदे से इतनी घृणा है ! क्या दोनो अतिथियों से यह कह दूं कि परदे की सहायता के दण्ड में मेरे यहाँ अनशनवत है, आप लोग ठएडो-ठएडी हवा खायें। ते० --जो चीजें तैयार हैं वह जाकर खिलाओ ओर जो नहीं हैं, उसके लिए क्षमा मांगो। द०-मैं तो कोई चीज़ तैयार नहीं देखता ?