पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८४ मानसरोवर - थी · जरा सी बात का तुमने इतना बतगड़ बना दिया । शायद मुझे तंग करने के लिए अवसर ढूँढ़ रही थों । कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही जान पड़ता है। से०--यह तुम्हारी ज्यादती है । ज्यों ही तुम सोढ़ी से उतरे, मेरी दृष्टि डिबिया की तरफ़ गयी, किन्तु वह लापता थी। ताड़ गयी कि तुम ले गये । तुम मुश्किल से दरवाजे तक पहुँचे होगे । अगर जोर से पुकारती तो तुम सुन लेते। लेकिन नीचे दुकानदारों के कान में भी अाराज जातो तो सुनकर तुम न जाने मेरी कौन-कौन दुर्दशा करते । हाथ मल कर रह गयी। उसी समय से बहुत व्याकुल हो रही हूँ कि किसी प्रकार भी दियासलाई मिल जाती तो अच्छा होता । मगर कोई वश न चलता था । अन्त में लाचार होकर बैठ रही । द०-यह कहो कि तुम मुझे तग करना चाहती थीं । नहीं तो क्या आग या दियासलाई न मिल जाती ? से०--अच्छा, तुम मेरी जगह होते तो क्या करते ? नीचे सब के सब दूकानदार हैं । और तुम्हारी जान-पहचान के हैं। घर के एक ओर पण्डितजी रहते हैं । इनके घर में कोई स्त्री नहीं । सारे दिन फाग हुई है। बाहर के सैकड़ों । आदमी जमा थे। दूसरी ओर बगाली बाबू रहते हैं। उनके घर की स्त्रियों किसी संबन्धी से मिलने गयो हैं और अब तक नहीं आयर्यो। इन दोनों से भी बिना छज्जे पर आये चीज न मिल सकती थी। लेकिन शायद तुम इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते । और कौन ऐसा था जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो । महरी तुम्हारे सामने ही चौका-बर्तन करके चली गई थी। रह-रहकर तुम्हारे ही ऊपर क्रोध आता था। द०-तुम्हारी लाचारी का कुछ अनुमान कर सकता हूँ, पर मुझे अब भी यह मानने में आपत्ति है कि दियासलाई का न होना चूल्हा न जलने का वास्तविक कारण हो सकता है। से०-तुम्हीं से पूछती हूँ कि बतलाओ, क्या करती ? द०-मेरा मन इस समय स्थिर नहीं, किन्तु मुझे विश्वास है कि यदि मैं तुम्हारे स्थान पर होता तो होली के दिन और खासकर जब अतिथि भी उपस्थित हों, चूल्हा ठण्डा न रहता । कोई न कोई उपाय अवश्य ही निकालता । से-जैसे ?