मानसरोवर गोपी--आनन्दी, मैं अपने को प्रेम पर बलिदान कर सकता हूँ, लेकिन अपने नाम को नहीं । इस नाम को अकलकित रखकर मैं समाज की बहुत कुछ सेवा कर सकता हूँ। आनन्दी-न कीजिए । आपने सब कुछ त्यागकर यह कीर्ति लाभ की है, मैं आपके यश को नहीं मिटाना चाहती ( गोपीनाथ का हाथ हृदयस्थल पर रखकर ) इसको चाहती हूँ। इससे अधिक त्याग की आकाक्षा नहीं रखती । गोपी-दोनों बातें एक साथ सभव हैं ? अानन्दी -सभव हैं। मेरे लिए सभव हैं। मैं प्रेम पर अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर सकती हूँ। ( ५ ) इसके पश्चात् : लाला गोपीनाथ ने आनन्दी की बुराई करनी शुरू की। मित्रों से कहते, उनका जी अब काम में नहीं लगता | पहले की-सी तनदेही नहीं है। किसी से कहते, उनका जी अव यहाँ से उचाट हो गया है, अपने घर जाना चाहती हैं, उनकी इच्छा है कि मुझे प्रति वर्ष तरक्की मिला करे और उसकी यहाँ गुजाइश नहीं । पाठशाला को कई बार देखा और अपनी आलोचना में काम को असन्तोषजनक लिखा । शिक्षा, सगठन, उत्साह, सुप्रबन्ध सभी बातों में निराशाजनक क्षति पायी। वार्षिक अधिवेशन में जब कई सदस्यों ने आनन्दी की वेतन-वृद्धि का प्रस्ताव उपस्थित किया तो लाला गोपीनाथ ने उसका विरोध किया। उधर आनन्दी बाई भी गोपीनाथ के दुखड़े रोने लगीं। वह मनुष्य नहीं है, पत्थर के देवता हैं। इन्हें प्रसन्न करना दुस्तर है, अच्छा ही हुआ कि उन्होंने विवाह नहीं किया, नहीं तो दुखिया इनके नखरे उठाते-उठावे सिधार जाती। कहाँ तक कोई सफाई और सुप्रबन्ध पर ध्यान दे ! दीवार पर एक धन्वा भी पड़ गया, किसी कोने-खुतरे में एक जाला भी लग गया, बरामदों में कागज़ का एक टुकड़ा भी पड़ा मिल गया तो श्रापके तीवर वदल जाते हैं। दो साल मैंने ज्यों त्यों करके निवाहा, लेकिन देखती हूँ कि लाला साहब की निगाह दिनों-दिन कड़ी होती जाती है । ऐसी दशा में मैं यहाँ अधिक नहीं ठहर सकती। मेरे लिए नौकरी का कल्याण नहीं है, जब जी चाहेगा, उठ खड़ी हूँगी। यहाँ श्राप लोगों से मेल-मुहब्बत हो गयी है, कन्याओं से ऐसा प्यार हो गया है कि
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