पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/४१

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मानसरोवर दाराशिकोह राजकीय कार्यों को सँभालते थे। युवराज की आँखों में शील था और चित्त में उदारता । उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं, इसलिए उनका बहुत श्रादर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उनको भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आये-दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुश्रा । रात-दिन आमोद प्रमोद की चर्चा रहने लगी। राजा विल स में डूबे, गनियों जड़ाऊ गहनों पर रीझी, मगर सारन्धा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती-वह इन रहस्यों से दूर दूर रहती, ये नृत्य और गान की सभाएँ उसे सूनी प्रतीत होती । एक दिन चम्पतराय ने सारन्धा से कहा-सारन, तुम उदास क्यों रहती हो ? मैं तुम्हें कभी हंसते नहीं देखता । क्या मुझसे नाराज हो ? सारन्धा की आँखों में जल भर आया। बोली-स्वामीजी, श्राप क्यों ऐसा विचार करते हैं ? जहाँ आप प्रसन्न हैं, वहाँ मैं भी खुश हूँ। चम्पतराय--मैं जबसे यहाँ आया हूँ, मैंने तुम्हारे मुख-कमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कराहट नहीं देखी। तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये । कहीं प्रेम लता मुरझाने तो नहीं लगी ? सारन्धा-प्राणनाथ, श्राप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं, जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है। यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। मैं बहुत चाहती है कि खुश रहूँ, मगर बोझ-सा हृदय पर घरा रहता है। चम्मतराय स्वय आनन्द में मम थे। इसलिए उनके विचार में सारधा को असन्तुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। वे भौहें सिकोड़कर योले-मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता । श्रोरछे में कौन सा सुख था जो यहाँ नहीं है ? सारन्धा का चेहरा लाल हो गया। बोली--मैं कुछ कहूँ, आप नारान तो न होंगे? चम्पतराय--नहीं, शौक़ से कहो। सारन्धा-ओरछे में मैं एक राजा की रानी थी। यहाँ मैं एक जागीरदार ॥