शाप
प्रायश्चित्त इस कालिमा को नहीं धो सकता । पतितोद्धार की कथाएँ और तौबा
या कन्फेशन करके पाप से मुक्त हो जाने की बातें, वह उब संसार-लिप्सी पाखंडी
धर्मावलम्बियों की कल्पनाएँ हैं।
हम दोनों यही बातें कर रहे थे कि रानी प्रियवदा सामने पाकर खड़ी हो
गयीं। मुझे आज अनुभव हुया, जो बहुत दिनों से पुस्तकों में पढ़ा करता था कि
सौंदर्य में प्रकाश होता है। आज इसकी तत्यता मैंने अपनी प्रोखों से देखी।
मैंने जब उन्हें पहले देखा था तो निश्चय किया था कि यह ईश्वरीय कलानैपुण्य
की पराकाष्ठा है; परन्तु अब जब मैने उन्हें दोबारा देखा, तो ज्ञात हुआ कि वह
इस असल की नकल थी। प्रियंवदा ने मुसकराकर कहा-'मुसाफिर, तुझे स्वदेश
में भी कभी हम लोगों की याद आयी थी?" अगर मैं चिन्कार होता तो उसके
मधुर हास्य को चित्रित करके प्राचीन गुणियों को चकित कर देता। उसके मुँह
से यह प्रश्न सुनने के लिए मैं तैयार न था। यदि इसी माँति में उसका उत्तर
देता तो शायद वह मेरी धृष्टता होती और शेरसिंह के तेवर बदल जाते। मैं
यह
भी न कह सका कि मेरे जीवन का सबसे सुखद भाग वही था, जो ज्ञानसरोवर
के तट पर व्यतीत हुआ था ; किन्तु मुझे इतना साहस भी न हुआ। मैंने दवी
जयान से कहा-"क्या में मनुष्य नहीं हूँ "
(८)
तीन दिन बीत गये । इन तीनो दिनों में खूब मालूम हो गया कि पूर्व को
आतिथ्यसेवी क्यों कहते हैं। यूरोप का कोई दूसरा मनुष्य जो यहाँ की सभ्यता
से अपरिचित न हो, इन सत्कारी से ऊब जाता । किन्तु मुझे इन देशों के रहन-
सहन का बहुत अनुभव हो चुका है और मैं इसका आदर करता हूँ।
नौध दिन मेरी विनय पर रानी प्रियवदा ने अपनी शेष कथा सुनानी
शुरू की-
ऐ मुसाफिर, मैने तुझसे कहा था कि अपनी रियासत का शासनभार मैंने
धिर पर रख दिया'या और अपनी योग्यता और दूरदर्शिता से उन्दोंने इस
काम को सम्हाला है, उसकी प्रशसा नहीं हो सकती । ऐटा बहुत कम हुआ है
कि एक विद्वान् पण्डित जिसका सारा जीवन पठन-पाठन में व्यतीत हुआ हो,
एक रियासत का चोर सम्हाले । किन्तु राजा वीरवल की भाँति पं० श्रीधर भी
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/६६
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
