८८ मानसरोवर कि मेरे निरन्तर अाग्रह करने पर भी अर्जुननगर न आये । विद्याधरी की ओर से वह इतने उदासीन क्यों हुए, सभझ में नहीं आता था। उन्हें तो उसका वियोग एक क्षण के लिए भी असह्य था । किन्तु इससे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि विद्याधरी ने भी अाग्रहपूर्ण पत्रों के लिखने के अतिरिक्त उनके पास जाने का कष्ट न उठाया । वह अपने पत्रों में लिखती 'स्वामीजी, मैं बहुत व्याकुल हूँ, यहाँ मेरा जी जरा भी नहीं लगता | एक-एक दिन एक-एक वर्ष के समान व्यतीत होता है । न दिन को चैन, न रात को नींद । क्या आप मुझे भूल गये १ मुझसे कौन-सा अपराध हुआ ? क्या आपको मुझपर दया भी नहीं अाती ? मैं आपके वियोग में रो-रोकर मरी जाती हूँ । नित्य स्वप्न देखती हूँ कि श्राप आ रहे हैं, पर यह स्वप्न कभी सच्चा नहीं होता ।' उसके पत्र ऐसे ही प्रेममय शब्दों से भरे होते थे और इसमें भी कोई सदेह नहीं कि जो कुछ वह लिखती थी वह भी अक्षरशः सत्य था, मगर इतनी व्याकुलता, इतनी चिन्ता और इतनी उद्विग्नता पर भी उसके मन में कभी यह प्रश्न न उठा कि क्यों न मैं ही उनके पास चली चलूँ । बहुत ही सुहावनी ऋतु थी। शानसरोवर में यौवनकाल की अभिलाषाओं की भाँति कमल के फूल खिले हुए थे । राजा रणजीतसिंह की पचीसवीं जयन्ती का शुभ-मुहूर्त आया। सारे नगर में आनन्दोत्सव की तैयारियाँ होने लगों । गृहिणियों कोरे-कोरे दीपक पानी में भिगोने लगी कि वह अधिक तेल न सोख जाये । चैत्र की पूर्णिमा थी, किन्तु दीपक की जगमगाहट ने ज्योत्स्ना को मात कर दिया था । मैंने राजा साहब के लिए इस्फ़हान से एक रत्न-जटित तलवार मॅगा रखी थी। दरवार के अन्य जागीरदारों और अधिकारियों ने भी भाँति- भाँति के उपहार मँगा रखे थे। मैंने विद्याधारी के घर जाकर देखा, तो वह एक पुष्पहार Dथ रही थी। मैं आध घण्टे तक उसके सम्मुख खड़ी रही, किंतु वह अपने काम में इतनी व्यस्त थी कि उसे मेरी आहट भी न मिली । तब मैंने धीरे मे पुकारा-"बहन !" विद्याधरी ने चौंककर सिर उठाया और बड़ी शीघ्रता से वह हार फल की हाली में छिपा दिया और लजित होकर बोली, क्या तुम देर से खड़ी हो ? मैंने उत्तर दिया, श्राध घटे से अधिक हुआ। विद्याघरी के चेहरे का रंग उड़ गया, आँखें झुक गयीं, कुछ हिचकिचाई, 1
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