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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/७२

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शाप - कुछ घबराई, अपने अपराधी हृदय को इन शब्दों से शात किया-'यह हार मैंने ठाकुरजी के लिए गूंथा है ।' उस समय विद्याधरी की घबराहट का मेद मैं कुछ न समझी। ठाकुरजी के लिए हार गूंथना क्या कोई लबा की बात है ? फिर जब वह हार मेरी नज़रों से छिपा दिया गया तो उसका ज़िक ही क्या १ हम दोनो ने कितनी ही वार साथ बैठकर हार गूंथे थे। कोई निपुण मालिन भी हमसे अच्छे हार न गूंथ सकती थी ; मगर इसमें शर्म क्या ? दूसरे दिन यह रहस्य मेरी समझ में आ गया। वह हार राजा रणधीरसिंह को उपहार में देने के लिए बनाया गया था। यह बहुत सुन्दर वस्तु थी । विद्याधरी ने अपना सारा चातुर्य उसके बनाने में खर्च किया था। कदाचित् यह सबसे उत्तम वस्तु यो जा राजा साहब की भेंट कर सकती थी । वह ब्राह्मणो यो। राजा साहब की गुरुमाता थी। उसके हायों से यह उपहार बहुत ही शोभा देता था ; किन्तु यह बात उसने मुझसे छिपाई क्यों ? मुझे उस दिन रातभर नींद न आई। उसके इस रहस्य-भाव ने उसे मेरी नज़रों से गिरा दिया। एक बार आँख झपकी तो मैंने उसे स्वप्न में देखा, मानों वह एक सुन्दर पुष्प है ; किन्तु उसकी वास मिट गयी हो। वह मुझसे गले मिलने के लिए बढ़ी; किन्तु मैं हट गयी और बोली कि तूने मुझसे यह बात छिपाई क्यों? ( १० ) ऐ मुसाफिर, राजार णधीरसिंह की उदारता ने प्रजा को मालामाल कर दिया । रईसों और अमीरों ने खिलयतें पाई। किसी का घोड़ा मिला, किसी को जागीर मिली । मुझे उन्होने श्री भगवद्गीता की एक प्रति एक मत्वमली बस्ते में रखकर दी। विद्याधरी को एक बहुमूल्य जड़ाऊ कगन मिला | उस कगन में अनमोल हीरे जड़े हुए थे। देहली के निपुण वर्णकारों ने इसके बनाने में अपनी कला का चमत्कार दिखाया था । विद्याधरी को अब तक आभूषणों से इतना प्रेम न था, अब तक सादगी ही उसका ग्राभूषण और पवित्रता ही उसका शृंगार थी, पर इस कगन पर वह लोट-पोट हो गयी। आपाढ़ का महीना आया । घटाएँ गगनमंडल में मँहलाने लगी। पण्डित y