शाप ६१ विद्याघरी ने रानी के साथ बागों में सैर करना छोड़ दिया, चौपड़ और शतरंज उसके नाम को राया करते । वह सारे दिन अपने कमरे में पड़ी रोया करती और सोचती कि क्या करूँ। काले वल पर काला दाग छिप जाता है, किन्तु उज्ज्वल वस्त्र पर कालिमा की एक बूंद भी झलकने लगती है। वह सोचती, इसी कगन ने मेरा सुख हर लिया है, यही कगन मुझे रक्त के ऑसू रुला रहा है। सर्प जितना सुन्दर होता है उतना ही विषाक्त भी होता है। यह सुन्दर कगन विवर नाग है, ने उसका सिर कुचल डालूंगी। यह निश्चय करके उसने एक दिन अपने कमरे में कोयले का अलाव जलाया, चारों तरफ़ के किवा बन्द कर दिये और उस जगन को जिसने उसके जीवन को सकटमय बना रखा था. संदूकचे से निकालकर आग में डाल दिया । एक दिन वह था कि कंगन उसे प्राणों से भी प्यारा था, उसे मवमली सदूकचे में रखती थी, अाज उसे इतनी निर्दयता से आग में जला रही है। विद्याधरी अलाव के सामने बैठी हुई थी कि इतने में पण्डित श्रीधर ने द्वार खटखटाया। विद्याधरी को काटो तो लोहू नहीं। उसने उठकर द्वार खोल दिया और सिर झुकाकर खड़ी हो गयी। पण्डितजी ने बड़े आश्चर्य से कमरे में निगाह दौड़ाई, पर रहत्य कुछ समझ में न आया । बोले कि किवाड़ बद करके क्या हो रहा है ? विद्याधरी ने उत्तर न दिया। तब पण्डितजी ने छड़ी उठा ली और अलाव कुरेदा तो कगन निकल आया। उसका सपूर्णतः रूपान्तर हो गया था। न वद चमक थी, न वह रग, न वह आकार । घबराकर बोले, विद्याधरी, तुम्हारी बुद्धि कहाँ है ? विद्या [-भ्रष्ट हो गयी है। पण्टिन-इस कगन ने तुम्हारा क्या बिगादा था ? विद्या-इसने मेरे हृदय में आग लगा रखी है। पण्डित-ऐनी अमूल्य वस्तु मिट्टी में मिल गयी ! विचा-एसने उससे भी अमूल्य वस्तु का साहरण किया है। परिटन-म्हाग सिर तो नहीं फिर गया है ? विणा r~शायद पारका अनुमान गत्य है। परिउतजी ने विद्याधरी की ओर चुभनेकाली निगाहों से देखा । विद्याधरः
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