पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/७३

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६० मानसरोवर 7 श्रीधर को घर की सुध आयो । पत्र लिखा कि मैं आ रहा हूँ । विद्याधरी ने मकान खूब साफ कराया और स्वय अपना बनाव शृंगार किया। उसके वस्त्रों से चन्दन की महक उड़ रही थी। उसने कगन को सकचे से निकाला और सोचने लगी कि इसे पहनूँ या न पहनूं ? उसके मन ने निश्चय किया कि न पहनेंगी । सदूक बद करके रख दिया । सहसा लौंडी ने आकर सूचना दी पण्डितजी आ गये। यह सुनते ही विद्याधरी लपककर उठी, किन्तु पति के दर्शनों की उत्सुकता उसे द्वार की ओर नहीं ले गयी। उसने बड़ी फुर्ती से सदूकचा खोला, कगन निकाल कर पहना और अपनी सूरत आइने में देखने लगी। इधर पण्डितजी प्रेम की उत्कठा से कदम बढ़ाते दालान से ऑगन और आँगन से विद्याधरी के कमरे में आ पहुँचे । विद्याधरी ने आकर उनके चरणों को अपने सिर से स्पर्श किया। पण्डितजी उसका यह शृगार देखकर दग रह गये । एकाएक उनकी दृष्टि उस कगन पर पड़ी। राजा रणधीरसिंह की सगत ने उन्हें रत्नों का पारखी बना दिया था। ध्यान से देखा तो एक-एक नगीना एक एक हजार का था । चकित होकर बोले, 'यह कगन कहाँ मिला विद्याधरी ने जवाब पहले से ही सोच रखा था। रानी प्रियवदा ने दिया है । यह जीवन में पहला अवसर था कि विद्याधरी ने अपने पतिदेव से कपट किया । जव हृदय शुद्ध न हो तो मुख से सत्य क्योंकर निकले ! यह कगन नहीं, वरन् एक विषैला नाग था। ( ११ ) एक सप्ताह गुजर गया । विद्याधरी के चित्त की शाति और प्रसन्नता लुप्त हो गयी थी। यह शब्द कि रानी प्रियवदा ने दिया है, प्रतिक्षण उसके कानों में गूंजा करते। वह अपने को धिक्कारती कि मैंने अपने प्राणाधार से क्यों कपट किया । वहुधा रोया करता । एक दिन उसने सोचा कि क्यों न चलकर पति से सारा वृत्तान्त सुना + । क्या वह मुझे क्षमा न करेंगे? यह सोचकर उठी, किंतु पति के सम्मुख जाते ही उसकी जवान बन्द हो गयी। वह अपने कमरे में आयी और फूट-फूटकर रोने लगी। कगन पहनकर उसे बहुत आनन्द हुआ था । इसी कगन ने उसे हँसाया था, अब वही रुला रहा है।