६६ मानसरोवर खड़ाऊँ रखी हुई थी। पातिव्रत का यह अलौकिक दृश्य देखकर मेरा हृदय पुलकित हो गया। मैंने दौड़कर विद्याधरी के चरणों पर सिर झुका दिया । उसका शरीर सूखकर कॉटा हो गया था और शोक ने कमर झुका दी थी। विद्याधरी ने मुझे उठाकर छाती से लगा लिया और बोली-बहन, मुझे लजित न करो। खूब श्रायीं, बहुत दिनों से जी तुम्हें देखने को तरह रहा था। मैंने उत्तर दिया-ज़रा अयोध्या चली गयी थी। जब हम दोनों अपने देश में थीं तो जब मैं कहीं जाती तो विद्याधरी के लिए कोई न कोई उपहार अवश्य लाती । उसे वह बात याद आ गयी। सजल नयन होकर बोली-मेरे लिए भी कुछ लायी ? मैं-एक बहुत अच्छी वस्तु लायी हूँ। विद्या-क्या है, देखू ? मैं-पहले बूझ जाओ। विद्या-सुहाग की पिटारी होगी ? मैं-नहीं, उससे अच्छी। विद्या- ठाकुरजी की मूर्ति ? मैं-नहीं उससे भी अच्छी। विद्या-मेरे प्राणाधार का कोई समाचार ? मैं-उससे भी अच्छी। विद्याधरी प्रबल अावेश से व्याकुल होकर उठी कि द्वार पर जाकर पति का स्वागत करे, किन्तु निर्बलता ने मन की अभिलाषा न निकलने दी। तीन वार सँमली और तीन बार गिरी, तब मैंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और आँचल से हवा करने लगी। उसका हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था और पतिदर्शन का आनन्द आँखों से आँसू बनकर निकलता था । जब जरा चित्त सावधान हुआ तो उसने कहा- उन्हें बुला लो, उनका दर्शन मुझे रामबाण हो जायगा । ऐसा ही हुश्रा । ज्योही पण्डितजी अन्दर आये, विद्याधरी उठकर उनके पैरों से लिपट गयो । देवी ने बहुत दिनों के बाद पति के दर्शन पाये हैं। अश्रुधारा से उनके पैर पखार रही है।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/७९
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