पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/८०

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शाप ६७ मैंने वहाँ ठरहना उचित न समझा। इन दोनों प्राणियों के हृदय में कितनी ही बातें आ रही होंगी, दोनों क्या-क्या कहना और क्या-क्या सुनना चाहते होंगे, यह विचार मैं उठ खड़ी हुई और बोली-बहन, अब मैं जाती हूँ, शाम को फिर आऊँगी। विद्याधरी ने मेरी ओर अॉखें उठाई । पुतलियों के स्थान पर हृदय रखा हुआ था। दोनों आँखें आकाश की ओर उठाकर बोली-ईश्वर तुम्हे इस यश का फल दें। ( १६ ) ऐ मुसाफिर, मैंने दो बार पण्डित श्रीधर को मौत के मुँह से बचाया या, किन्तु आज का-सा अानन्द कभी न प्राप्त हुआ था। जब मैं जानसरोवर पर पहुंची तो दोपहर हो आया था। विद्याधरी की शुभकामना मुझसे पहले ही पहुँच चुकी थी। मैंने देखा कि कोई पुरुष गुफा से निकलकर ज्ञानसरोवर की ओर चला जाता है । मुझे आश्चर्य हुआ कि इस समय यहाँ कौन अाया। लेकिन जब समीप आ गया तो मेरे हृदय में ऐसी तरंगें उठने लगी मानो छाती से बाहर निकल पड़ेगा। यह मेरे प्राणेश्वर, मेरे पतिदेव थे। मैं चरणों पर गिरना ही चाहती थी कि उनका कर-पाश मेरे गले में पड़ गया। पूरे दस वर्षों के बाद आज मुझे यह शुभ दिन देखना नसीब हुआ । मुझे उस समय ऐसा जान पड़ता था कि ज्ञानसरोवर के कमल मेरे ही लिए खिले हैं, गिरिराज ने मेरे ही लिए फूल की शव्या बिछा दी है, हवा मेरे ही लिए झूमतीहुई आ रही है। दस वर्षों के बाद मेरा उजड़ा हुआ घर बसा; गये हुए दिन लौटे। मेरे आनन्द का अनुमान कौन कर सकता है। मेरे पति ने प्रेमकरु, आँखों से देखकर कहा-'प्रियंवदा ! ७